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________________ 'सुंदर' एक संतोष बिना, शठ तेरी तो भूख कबहूं न भगेगी। पाश्चात्य विचारक महात्मा टालस्टाय ने भी How much land does a man need नामक कहानी में एक ऐसा ही सुंदर चित्र खींचा है। कहानी का सारांश यह है कि कथानायक भूमि की असीम तृष्णा के पीछे अपने जीवन को समाप्त कर देता है और उसके द्वारा उपलब्ध किए गए विस्तृत भू भाग में केवल उसके शव को दफनाने जितना भू-भाग ही उसके उपयोग में आता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मानव में संग्रहवृत्ति या परिग्रह की धारणा का विकास उसकी तृष्णा के कारण ही हुआ है। मनुष्य के अंदर रही हुई तृष्णा या आसक्ति मुख्यतः दो रूपों में प्रकट होती है - 1. संग्रह भावना और 2. भोग भावना । संग्रह भावना और भोग भावना से प्रेरित होकर ही मनुष्य दूसरे व्यक्तियों के अधिकार की वस्तुओं का अपहरण करता है। इस प्रकार, आसक्ति का बाह्य प्रकटन निम्नलिखित तीन रूपों में होता है1. अपहरण (शोषण), 2. भोग, 3. संग्रह । संग्रहवृत्ति एवं परिग्रहजन्य समस्याओं के निराकरण के उपाय भगवान् महावीर ने संग्रहवृत्ति के कारण उत्पन्न समस्याओं के समाधान की दिशा में विचार करते हुए बताया कि संग्रहवृत्ति पाप है। यदि मनुष्य आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करता है, तो वह समाज में अपवित्रता का सूत्रपात करता है। संग्रह फिर चाहे धन का हो या अन्य किसी वस्तु का, वह समाज के अन्य सदस्यों को उनके उपभोग के लाभ से वंचित कर देता है। परिग्रह या संग्रहवृत्ति एक प्रकार की सामाजिक हिंसा है। जैन आचार्यों की दृष्टि में समग्र परिग्रह हिंसा से प्रत्युत्पन्न हैं । व्यक्ति संग्रह के द्वारा दूसरों के हितों का हनन करता है और इस रूप में संग्रह या परिग्रह हिंसा का ही एक रूप बन जाता है | अहिंसा के सिद्धान्त को जीवन में उतारने के लिए जैन आचार्यों ने यह आवश्यक माना कि व्यक्ति बाह्य परिग्रह का भी विसर्जन करे। परिग्रहत्याग अनासक्त दृष्टि का बाह्य जीवन में दिया गया प्रमाण है। एक ओर विपुल संग्रह और दूसरी ओर अनासक्ति का सिद्धान्त। इन दोनों में कोई मेल नहीं हो सकता। यदि मन में अनासक्ति की भावना का उदय है, तो उसका बाह्य व्यवहार में अनिवार्य रूप से प्रकटन होना चाहिए। अनासक्ति की धारणा को व्यावहारिक रूप देने के लिए गृहस्थ जीवन में परिग्रह मर्यादा और श्रमण जीवन में समग्र परिग्रह के त्याग का निर्देश दिया गया है। दिगम्बर जैन मुनि के अपरिग्रही जीवन का आदर्श 111 114
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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