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________________ है 10 भगवान् महावीर का अपरिग्रह सिद्धांत और उसकी उपादेयता संग्रहवृत्ति का उद्भव एवं विकास अपरिग्रह का प्रश्न सम्पत्ति के स्वामित्व से जुड़ा हुआ है और सम्पत्ति की अवधारणा का विकास मानव जाति के विकास का सहगामी है। मानव इस पृथ्वी पर कैसे और कब अस्तित्व में आया? यह प्रश्न आज भी वैज्ञानिकों के लिए एक गूढ़ पहेली बना हुआ है। विकासवादी दार्शनिक मानव-सृष्टि को विकास की प्रक्रिया का ही एक अंग मानते हैं। अमीबा जैसे एककोशीय प्राणी से प्राणियों की विभिन्न जातियों की विकास प्रक्रिया के माध्यम से मनुष्य की उत्पत्ति की व्याख्या करते हैं, जबकि जैनदर्शन सृष्टि को आरोह और अवरोह की एक सतत प्रक्रिया (continuing process) बताता है और मानव जाति के अस्तित्व को भी इस आरोह और अवरोह क्रम के संदर्भ में ही विवेचित करता है। फिर भी नृतत्व विज्ञान, विकासवादी दर्शन और जैन दर्शन इस संबंध में एकमत हैं कि मानव की वर्तमान सभ्यता का विकास उसके प्राकृतिक जीवन से हुआ है। एक समय था, जबकि मनुष्य विशुद्ध रूप से एक प्राकृतिक जीवन जीता था और प्रकृति भी इतनी समृद्ध थी कि मनुष्य को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए न तो कोई विशिष्ट श्रम करना होता था और न संग्रह ही, अतः उस युग में परिग्रह का विचार ही उत्पन्न नहीं हुआ था, क्योंकि उस युग में न तो सम्पत्ति ही थी और न उसके स्वामित्व का विचार ही था। मानव उदार प्रकृति की गोद में पलता और पोषित होता था। जैन परम्परा में इसे यौगलिक युग (अकर्म 110
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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