________________
तीसरी स्थिति कर्ता की दृष्टि से निर्दोष मानी जा सकती है।
हिंसा के विभिन्न रूप
हिंसक कर्म की उपर्युक्त तीन विभिन्न अवस्थाओं में यदि तीसरी हिंसा हो जाने की अवस्था को छोड़ दिया जाए तो हमारे समक्ष हिंसा के दो रूप बचते हैं -
1. हिंसा की गई हो, और 2. हिंसा करनी पड़ी हो। वे दशाएँ, जिनमें हिंसा करना पड़ती है, दो प्रकार की हैं - 1. रक्षणात्मक और 2. आजीविकात्मक।
आजीविकात्मक में भी दो बातें सम्मिलित हैं, जीवन जीने के लिए साधनों का अर्जन और उनका उपभोग।
जैन अचार दर्शन में इसी आधार पर हिंसा के चार वर्ग माने गए हैं - 1. संकल्पजा - संकल्प या विचारपूर्वक हिंसा करना। यह आक्रमणात्मक हिंसा है। 2. विरोधजा - स्वयं और दूसरे लोगों के जीवन और स्वत्वों (अधिकारों) के
आरक्षण के लिए विवशतावश हिंसा करना। यह रक्षणात्मक हिंसा
3. उद्योगजा - आजीविका के उपार्जन अथवा उद्योग एवं व्यवसाय के निमित्त होने
वाली हिंसा। यह उपार्जनात्मक हिंसा है। 4. आरम्भजा - जीवन निर्वाह के निमित्त होने वाली हिंसा, जैसे भोजन पकाने में।
यह निर्वाहात्मक हिंसा है।
हिंसा के कारण
जैन आचार्यों ने हिंसा के 4 कारण माने हैं1.राग, 2.द्वेष, 3. कषाय और 4. प्रमाद।
हिंसा के साधन