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हिंसा है और आत्मा ही अहिंसा है, प्रमत्त आत्मा हिंसक है और अप्रमत्त आत्मा ही अहिंसक है।
द्रव्य एवं भाव हिंसा ___ अहिंसा को सम्यक् रूप से समझने के लिए पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जैन विचारणा हिंसा के दो पक्षों पर विचार करती है। एक, हिंसा का बाह्य पक्ष है, जिसे जैन पारिभाषिक शब्दावली में द्रव्य हिंसा कहा गया है। द्रव्य हिंसा के संबंध में एक स्थूल एवं बाह्य दृष्टिकोण है। यह एक क्रिया है, जिसे प्राणातिपात, प्राणवध, प्राणहनन आदि नामों से जाना जाता है। जैन विचारणा आत्मा को अपेक्षाकृत रूप से नित्य मानती है, अतः हिंसा के द्वारा जिसका हनन होता है, वह आत्मा नहीं वरन 'प्राण' है। प्राण जैविक शक्ति है। जैन विचारणा में प्राण दस माने गए हैं। पांच इन्द्रियों की पांच शक्तियाँ मन, वाणी और शरीर इनका विविध बल तथा श्वसन क्रिया एवं आयुष्य- ये दस प्राण हैं और इन प्राणशक्तियों के वियोजीकरण को ही द्रव्य दृष्टि से हिंसा कहा जाता है। यह हिंसा की द्रव्य दृष्टि से की गई परिभाषा है, जो कि हिंसा के बाह्य पक्ष पर बल देती है।
भाव हिंसा हिंसक विचार है, जबकि द्रव्य हिंसा हिंसक कर्म है। भाव हिंसा मानसिक अवस्था है। आचार्य अमृतचंद्र ने भावनात्मक पक्ष पर बल देते हए हिंसा-अहिंसा की परिभाषा की है। उनका कथन है कि रागादि कषायों का अभाव अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना हिंसा है। हिंसा की एक पूर्ण परिभाषा तत्त्वार्थसूत्र में मिलती है। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार राग, द्वेष, अविवेक आदि प्रमादों से युक्त होकर किया जाने वाला प्राण वध हिंसा है।
हिंसा के प्रकार
जैन विचारकों ने द्रव्य और भाव-इन दो आधारों पर हिंसा के चार विभाग किए हैं(1)मात्र शारीरिक हिंसा, (2)मात्र वैचारिक हिंसा, (3) शारीरिक एवं वैचारिक हिंसा और (4)शाब्दिक हिंसा। मात्र शारीरिक हिंसा-ऐसी द्रव्य हिंसा है, जिसमें हिंसक क्रिया तो सम्पन्न हुई हो, लेकिन हिंसा के विचार का अभाव हो, उदाहरणार्थ-सावधानीपूर्वक चलते हुए भी दृष्टिदोष या सूक्ष्म जन्तु के नहीं दिखाई देने पर हिंसा हो जाना। मात्र