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नहीं होता है, किसी एक समाज या राष्ट्र द्वारा की जाने वाली अहिंसा के आदर्श की बात कोई अर्थ नहीं रखती है। संरक्षणात्मक और सुरक्षात्मक हिंसा समाज - जीवन के लिए अपरिहार्य है। समाज - जीवन में इसे मान्य भी करना ही होगा। इस प्रकार, उद्योगव्यवसाय और कृषि कार्यों में होने वाली हिंसा भी समाज जीवन में बनी ही रहेगी। मानवसमाज में मांसाहार एवं तज्जन्य हिंसा को समाप्त करने की दिशा में सोचा जा सकता है, किन्तु उसके लिए कृषि के क्षेत्र में एवं अहिंसक आहार की प्रचुर उपलब्धि के संबंध में व्यापक अनुसंधान एवं तकनीकी विकास की आवश्यकता होगी। यद्यपि हमें यह समझ
ना होगा कि जब तक मनुष्य की संवेदनशीलता को पशुजगत् तक विकसित नहीं किया जावेगा और मानवीय आहार को सात्विक नहीं बनाया जावेगा, मनुष्य की आपराधिक प्रवृत्तियों पर पूरा नियंत्रण नहीं होगा। आदर्श अहिंसक समाज की रचना हेतु हमें समाज से आपराधिक प्रवृत्तियों को समाप्त करना होगा और आपराधिक प्रवृत्तियों के नियमन के लिए हमें मानव जाति में संवेदनशीलता, संयम एवं विवेक के तत्त्वों को विकसित करना होगा।
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हिंसा और अहिंसा का सीमा क्षेत्र
हिंसा और अहिंसा के सीमा क्षेत्र को समझने के लिए हमें हिंसा के तीन रूपों को समझ लेना होगा - 1. हिंसा की जाती है, 2. हिंसा करनी पड़ती है, 3. हिंसा हो जाती है। हिंसा का वह रूप, जिसमें हिंसा की नहीं जाती, वरन् हो जाती है, हिंसा की कोटि में नहीं आता है, क्योंकि इसमें हिंसा का संकल्प पूरी तरह अनुपस्थित रहता है। मात्र यही नहीं, हिंसा से बचने की पूरी सावधानी भी रखी जाती है। हिंसा के संकल्प के अभाव में एवं सम्पूर्ण सावधानी के बावजूद भी यदि हिंसा हो जाती है, तो वह हिंसा के सीमाक्षेत्र में नहीं आती है। हमें यह भी समझ लेना होगा कि किसी एक संकल्प की पूर्ति के लिए की जाने वाली क्रिया के दौरान सावधानी के बावजूद अन्य कोई हिंसा की घटना घटित हो जाती है, जैसे- गृहस्थ उपासक द्वारा भूमि जोतते हुए किसी त्रस प्राणी की हिंसा की जाना, अथवा किसी मुनि द्वारा पदयात्रा करते हुए त्रसप्राणी की हिंसा हो जाना, तो उन्हें उस हिंसा के प्रति उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि उनके मन में उस हिंसा का कोई संकल्प ही नहीं है, अतः ऐसी हिंसा, हिंसा नहीं है। जैन परम्परा में हिंसा के निम्न चार स्तर माने गए हैं- 1. संकल्पजा, 2. विरोधजा, 3. उद्योगजा, 4 आरम्भजा । इनमें
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