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श्री विजयपद्मसूरिविरचितः ॥ श्री कदंबगिरि चैत्यवंदनम् ॥
॥ आर्यावृत्तम् ॥ वंछियदाणसमत्य-परमत्यनियाणकुसलसाहणयं ॥ विजयइ कयंबतित्थं-विमलब्भुयमहिमसंकलियं ॥१॥ सिरिसंपइतित्थयरो-इह गयचउवीसिगाइ तस्स गणी ॥ इगकोडी मुणिसहिओ-पत्तो मुर्ति कयंबक्खो ॥२॥ एएण कारणेणं-एस कयंबत्ति णामपरिविइओ॥ कल्लाणपसतियरो-भवसायरजाणवत्तनिहो ॥ ३ ॥ कम्माण बंधमुक्खा-हॉति सया भावणाणुसारेणं ॥ कम्मुम्मूलणदक्खो-सुहभावो तित्थभूमीए ॥ ४ ॥ एवं नाऊण सया-कुणंतु भव्या ! कयंवतित्थस्स ॥ भत्तिं परमुल्लासा-सच्चाणंदो हवइ जम्हा ॥ ५॥
॥ श्री हस्तिगिरि चैत्यवंदनम् ॥
॥ आर्यावृत्तम् ॥ अणसणसाणहजोगा-जत्थ गया भरहचक्कवट्टिस्स ॥ सुररिद्धिं संपत्ता-बुच्चइ तेणेस हत्थिगिरी ॥१॥ सिद्धायलिकदेसो-परमत्था भिन्नया न दुण्डंपि ॥ सेत्तुजी सुक्खदया-वहए अत्थिक्कपासम्मि ॥ २ ॥ एयं तित्थं समय-भव्वाणं कम्मणिज्जराकरणं ॥ सम्भावुल्लासयरं-चियदुरियघणाणिलं विसहं ॥ ३॥