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प्राकृतस्तोत्रप्रकाशः
वाएसरि विणेया, मणुया झाति मंतवण्णेहि ॥ जे ते पराजिणेते, बिहप्फई विमलधिसणाए ॥१७॥ तव गुणसईअ जणणि ! जायइ भव्वाण भत्तिललियाणं ॥ आणंदबुद्धिवुड्ढी, कल्याणं कित्तिजसरिद्धी ॥ १८ ॥ मज्झ मणं तइयपयं-बुए कया रायहंसदिटुंता ॥ होहिइ लीणं वाणि ! फुडं वएज्जा पसीऊणं ॥ १९॥ णयणेउण्णं तेसिं, सुलहं वरसत्तभंगविण्णाणं ॥ सिरिसुयदेवी जेसिं, सययं हिययं विहूसेइ ॥२०॥ रससंचारणविउसिं, चउन्भुयं हंसवाहणं सुब्भं ॥ कुंदिंदुहम्मवासं, सुयदेवि भगवई थुणमि ॥२१॥ सुयदेवयाइ भत्ती, उप्पज्जइ पुण्णपुंजकलियाणं ॥ मंगलमयसिरितुट्टी, संपजउ संभयंताणं ॥ २२॥ गुणणंदणिहिंदुसमे, माहेऽसियसत्तमीइ गुरुवारे ॥ पुण्णपइट्ठादियहे, अट्ठमचन्दप्पहस्स मुया ॥२३॥ पवरबदरखागामे, गुरुवरसिरिणेमिमूरिसीसेणं ॥ पउमेणायरिएणं, सरस्सईवींसिया रइया ॥२४॥ रयणमिमं विण्णत्तो, मोक्खाणन्देण हं समकरिस्सं॥ भणणाऽऽयण्णणभावा, संघगिहे संपया पुण्णा ॥२५॥