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________________ २६० श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् विनय के साक्षात् अवतार इन सभी उपस्थित विनीत शिष्यों के आचीर्ण अपराधों को मैं क्षमा करता हूं और क्षमता के धनी वे सभी शिष्य मुझे क्षमा करें। १७१ श्राद्धान् समस्तान् समुपस्थितान् यच्छाद्धीः परान् वा क्षमयामि सम्यक् । कदापि कस्मै च कथञ्चिदेव, समागता स्यात् कटुता कटाक्षा। उपस्थित समस्त श्रावक-श्राविकाओं तथा इतर लोगों से भी यदि कभी, किसी प्रकार का कटु व कटाक्षपूर्ण व्यवहार हुआ हो तो मैं उनसे खमत-खामना करता हूं। १७२. या रागरोष रहिता च मैत्री, सा वर्ततां मे जिनवत्समेषु । __मयाजितं यत् सुकृतं जिनोक्तं, तत् प्रीतचेता अनुमोदयामि ॥ समस्त जीवों के साथ जिनराज की तरह ही मेरी राग-द्वेष रहित मंत्री हो, और मैंने जितना भी जिनोक्त धर्म अजित किया है, उसकी मैं प्रसन्न चित्त से अनुमोदना करता हूं। १७३. सिद्धयष्टपमास्मितपप्रवद् यो, महोदयानन्दमतिः । अलोव कजे मम मानसे स, रंरम्यतां श्रीपरमेष्ठिमन्त्रः॥ सिद्धि की आठ लक्ष्मियों से युक्त विकसित कमल के समान, मोक्ष प्रदाता कल्पतरु के समान जो परमेष्ठी मत्र है वह मेरे मन में वैसे ही रम जाए, जैसे कमल में भ्रमर । १७४. वारं वनानामिव वारिणेह, व्रतं समस्तं विफलं विना यम् । शुभः स भावो मम मोक्षमार्गाऽनुगामिनः सत्यसहायकोस्तु॥ शुभ भावों के बिना समस्त व्रत वैसे ही निष्फल हो जाते हैं जैसे बिना पानी के वन समूह । अतः वह शुभ भाव मुझ मोक्षानुगामी का सच्चा सहायक बने । १७५. शृङ्गण खड्गीव मुदाऽहमेको, वर्ते न कश्चिन् मम वर्ततेऽन्यः । पुनः पृथिव्याः पतिवनितान्तं, स्यां नैव कस्यापि निरीहवृत्त्या॥ गैंडे के एक सींग की तरह ही मैं भी अकेला हूं। न तो कोई मेरा है और न मैं किसी का हूं। मैं निस्पृहवृत्ति के कारण एक राजा की तरह ही किसी का नहीं हूं । अर्थात् राजा किसी का नहीं होता। १७६. न वेषभूषा न च लोकपूजा, न संघमेलश्च समाधिबीजम् । . बाह्यां विमुच्याऽखिलवासनां तां, स्वाध्यात्मभावे सुतरां रमेऽहम् ॥
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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