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________________ सप्तदशः सर्गः २५९ ' स्थली प्रदेश में विचरण करने वाले मुनि चन्द्रभान और तिलोकचन्द को भी मेरी ओर से विशुद्ध भावना पूर्वक 'खमत-खामना' कह देना, क्योंकि उनके साथ भी अनेक बार वार्तालाप आदि का काम पड़ा है। १६५. यद्दीक्षया ज्येष्ठमुनिश्वराणामाशातना मे कयमेव जाता । क्षान्त्या ततोऽहं भमयामि नम्रो, रत्नाधिकास्ते बहुमाननीयाः ॥ मेरे से जो दीक्षा पर्याय में बड़े संत हैं, उनकी यदि किसी प्रकार से मेरे द्वारा आशातना हुई हो तो मैं उनसे अत्यंत विनम्रतापूर्वक क्षमायाचना करता हूं। रत्नाधिक मुनि बहु सम्माननीय होते हैं । १६६. काञ्चित् प्रकृत्यातिकठोरसाधुसतीजनान् वीक्ष्य कठोरशिक्षाम् । सूदारणार्थ विततार तत्र, समापनां चारुधिया करोमि ॥ किन्हीं कठोर प्रकृति वाले साधु-साध्वियों को सुधारने के लिए यदि कटु शिक्षा देने का काम पड़ा हो तो मैं उनसे विशुद्ध भावों से क्षमा मांगता हूं। १६७. जनरनेकविहिता सुचर्चा, तत्र प्रयुक्तं कठिनं च किञ्चित । विधैव तस्याऽपि सदाशयेन, तितिक्षयामि श्रमणत्ववृत्त्या ॥ अनेक व्यक्तियों के साथ चर्चा-वार्ता करने का काम पड़ा। यदि वहां कटु-कठोर शब्द प्रयुक्त किए हों तो मैं साधुवृत्ति से निर्मलतापूर्वक तीन करण और तीन योग से उनसे क्षमा मांगता हूं। १६. छिद्रावलोकिप्रतिपक्षिधर्म द्विषां समागाद् यदि वैरभावः । तैः सार्द्धमन्तःकरणेन कुर्वे, क्षमापनं क्षान्तितया नितान्तम् ॥ छिद्रान्वेषी, प्रतिपक्षी और धर्म के द्वेषी व्यक्तियों पर भी यदि द्वेष-भावना आई हो तो मैं उनको भी अन्तर् दिल से क्षमा प्रदान करता हूं और उनसे क्षमा मांगता हूं। १६९. स्वमानपूजापरिरक्षणार्थ, स्वेषां परेषां कथमेव किञ्चित् । मृषासमारोपमुखं न्यधायि, मृष्यन्तु ते तान् मृषयामि सम्यक् ॥ अपनी मान-प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए निजी या पराये किसी भी व्यक्ति पर यदि मिथ्या आरोप लगाया हो तो वे मुझे क्षमा करें और मैं भी उनको सम्यक् प्रकार से क्षमा करता हूं। १७०. उपस्थितान् सविनयावतारान्निवाखिलान्च्छुचविनेयवारान् । जातापराधे क्षमयामि साक्षात्, क्षमन्तु सर्वे क्षमया क्षमाढ्याः ॥
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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