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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
५९. स्वस्य स्वयं तेन गुरोरनुज्ञा, नामानि कि प्रत्ययतोक्तमानः'। शङ्का न कि केवलिषु प्रमुक्ताः, प्रकाशिताः किं स्वतया स्वभावाः ॥
(त्रिभिविशेषकम्) 'यहां परं यदि कोई कहे कि यह भिक्षु स्वामी की शिक्षा एकान्त स्वार्थ-परायण है, दूसरों की दीप्त प्रतिभा एवं विचारों का निर्दयतापूर्वक गला घोटने वाली है।'
___ 'यह उनका उपदेश 'परोपदेशे पाण्डित्यम्' की उक्ति को ही चरितार्थ करने वाला है, क्योंकि अपने जीवन में उन्होंने इसका प्रयोग नहीं किया। यह तो केवल पुस्तक तथा कथन का ही फल है, पर खाने के फल तो और ही होते हैं।'
'उन्होंने क्यों नहीं स्वयं अपने गुरु की आज्ञा मानी ? क्यों नहीं उन पर विश्वास किया ? क्यों नहीं उनका आदेश माना ?क्यों नहीं अपनी शंकाओं को केवलीगम्य किया ? और क्यों स्वच्छन्दतापूर्वक अपनी मान्यताएं प्रगट की ?'
६०. तदुत्तरं जल्पनमीदृशं यत्, फलं तदुक्तेरनभिज्ञतायाः । न पक्षपाती स कथञ्चिदेवाऽनाचारशथिल्यकसम्मुखानाम् ॥
पूर्वोक्त आक्षेपों को करने वाले की इन उत्तियों से उसकी अनभिज्ञता का ही परिचय मिलता है, क्योंकि भिक्षु स्वामी अनाचार एवं शैथिल्य की ओर बढ़ने वाले व्यक्तियों के कभी पक्षपाती नहीं थे। ६१. गणिर्गुरुर्वा भवतान् मुनिर्वाऽऽचार्यश्चरित्राद् यदि वा प्रभ्रष्टः । उत्सूत्रतालापकरः कवाऽपि, सेव्यो न वन्यो न च माननीयः ॥
उनकी दृष्टि में चाहे गणी हो, गुरु या मुनि हो और चाहे स्वयं आचार्य भी क्यों न हो, यदि वे आचार-शिथिल तथा उत्सूत्र के प्ररूपक हैं तो वे न तो पूजनीय हैं, न वन्दनीय हैं और न माननीय हैं।
६२. कस्यानुबन्धः सुमुनेर्वदन्तु, स्नेहं सुखं त्रोटयति क्षणेन । आचारिभिः सम्मिलति प्रतीत्या, छिन्नत्यनाचारवतोऽभिषङ्गम् ॥
बताओ, साधुओं का किसके साथ अनुबंध होता है ? वे तो क्षणमात्र में स्नेहबंधन तोड़ देते हैं । वे आचारवान के साथ प्रेमपूर्वक मिलते हैं तथा अनाचारी से संबंध तोड़ देते हैं । ६३. माराधनीयोऽन्तिषदा गुरुः सन्, यथाग्निरग्न्यर्चकवाडवेन ।
गुरुः श्लयः शैलकवत् परन्तु, प्रोजन्यः स्वकीयोप्यपमार्गगामी । १. प्रत्ययता च विश्वासता च, उक्तम् कथनं च, मानं प्रमाणं च, तैः सह
प्रत्ययतोक्तमानः। २. स्वतया - स्वच्छंदतया।