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________________ सप्तदशः सर्गः २३९ 'हे शिष्यो ! अच्छी तरह से जांच-पड़ताल करके ही दीक्षा देनी चाहिए । ऐसे-वैसे हर किसी को मुण्डित नहीं करना चाहिए । शिष्यलिप्सा अति दुःखदायिनी होती है । शिष्यों पर ममत्वभाव रखना भी परिग्रह है । ५३. वेया च दीक्षा हि महाजनाय, शेषेऽभ्यधायि व्रतिनामधीशः । नलेखितं किन्तु दले विनीतैरधारि चित्ते तदिदं शुभाय ॥ आचार्य भिक्षु ने शिक्षा देते हुए अन्त में कहा-दीक्षा महाजन को ही देनी चाहिए। उन्होंने इसे मर्यादा के रूप में पन्ने पर नहीं लिखा किन्तु सुविनीत शिष्यों ने उसे श्रेयस्कर समझ कर हृदय में धारण कर लिया । ५४. सर्वेऽपि शुद्धंकगुरोनियोगे, प्रवर्तनीया विशवाशयेन । परम्परारीतिरियं च सीमा निर्वाहनीया परिपालनीया ॥ 'तुम सभी निर्मलनीति से शुद्ध गुरु के अनुशासन में ( आदेश में ) चलते रहना, यह परम्पर रीति है । इस मर्यादा का भलीभांति निर्वाह और पालन करते रहना है ।' ५५. यः कोऽपि दोषान् परिषेव्य मिथ्यालपेन दण्डं समुपाददीत । सोऽरं बहिष्कारपदे नियोज्यो, विहाय दूरं भयशिष्यलोमम् ॥ 'यदि कोई भी मुनि दोष का सेवन करके भी झूठ बोलता है और दण्ड स्वीकार नहीं करता है तो भय और शिष्य के लोभ को छोड़कर उसे शीघ्र ही गण से पृथक् कर देना चाहिए ।' ५६. बुध्येत नार्थी यदि कोऽपि गूढो, हठात् परैः सर्वविदे स देयः । स्थाप्यं स्वतो नैव मतं नवीनं, कार्या न मिथ्या दलबन्धिताऽपि ॥ 'यदि कोई गूढ़ तत्त्व बुद्धिगम्य न हो तो आग्रह से परे होकर उसे केवलीगम्य कर देना चाहिए, अपने आप किसी नवीन मान्यता की स्थापना और मिथ्या गुटबन्दी नहीं करनी चाहिए ।' ५७. अत्रोह्यते कंश्चिदियं च शिक्षा, स्वार्थेक संसाधकपक्ष पूर्णा । पर प्रकाशप्रतिभाशयानां निःशूकशक्त्या गलघोटनं च ॥ ५८. पाण्डित्यमेतद्धि परोपदेशे, न चात्मसात् तत्करणीयमेव । अन्यत् फलं जल्पनपुस्तकीयमास्वादनस्याऽपरमेव किञ्चित् ॥
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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