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________________ सप्तदशः सर्गः ४२. अतः कषायश्लथताग्रहाचं मं ते भवत्कोपि निरङ्कुशः स्यात् । साधुः स मान्यो न च वन्दनीयः, सीमापसारीव स वर्जनीयः ॥ 'यदि कोई मुनि कषाय, आचार-शिथिलता एवं दुराग्रह आदि दोषों से मदोन्मत्त हाथी की तरह निरङ्कुश हो जाए तो वह मर्यादा का अतिक्रमण करने वाला मुनि सबके लिए अमान्य, अवन्दनीय और वर्जनीय है ।' ४३. यः कोप्यनुज्ञां श्लथितोऽस्य भारीमालस्य मुक्त्वा गणतो बहिः स्यात् । साधुः स मान्यो न कदापि सर्वैस्तत्त्वं विशेषात् परिचिन्तनीयम् ॥ 'जो कोई मुनि शिथिलाचारी होकर भारीमाल की आज्ञा को छोड़कर गण से बाहर हो जाए तो उसे कोई साधु न माने। इस सूक्ष्म रहस्य को गहराई से समझना चाहिए ।' ४४. एकस्त्रयो द्वावपि वा कियन्तो, भग्नव्रता ये गणतो बहिः स्युः । तेषां च चिन्ता न मनाग् विधेया, स्वाचाररक्षा सततं प्रकार्या ॥ २३७ 'व्रतों से भ्रष्ट होकर एक, दो या तीन या कितने भी क्यों न हों, यदि गण से बाहर हो जाएं तो उनकी किञ्चित् भी परवाह न करते हुए अपने आचार की सुरक्षा में सतत जागरूक रहना चाहिए ।' ४५. आचारपारायणपालकैः सत्सम्बन्धबन्धो व्रतिनां सुखाय । आचारहीनंः शिथिलैः समन्तात्, कुसङ्गवत् त्रोटथितव्य एव ॥ 'आचार - सम्पन्न साधुओं के साथ बना हुआ सम्बन्ध ही मुनियों के लिए सुखद होता है । आचारहीन और शिथिल मुनियों के साथ बने संबंध को कुसंग की भांति पूर्णतः तोड़ ही देना चाहिए ।' ४६. आचारवन्तो मुनयो हि सेव्या, आरोग्यकामैरिव तथ्यपथ्याः । आचारहीना गुरवो हि हेयाः, कुपथ्यवारा इव पाटवोत्कैः ॥ 'आचारवान् मुनि ही उपासना के योग्य होते हैं। जैसे स्वास्थ्य की कामना करने वाला व्यक्ति उत्तम पथ्य का सेवन करता है वैसे ही आचारवान् मुनि की उपासना करनी चाहिए । आचारहीन गुरु वैसे ही त्याज्य हैं जैसे आरोग्यार्थी के लिए कुपथ्य' । ४७. यो वीतरागस्य गुरोश्च शिष्टधा, विलोपकः सोऽत्र न वन्दनीयः । स्वच्छन्दचारी स्वगुरून्म विष्णुर्भवेद् गुरुर्वान्वगुरुगंरीयान् ॥
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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