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धीभिभुमहाकाव्यम् ३७. अस्मिन्नियुक्तोष्टमभक्तदण्ड, ईक्षिति कोपि वदेत्तदानीम् । प्रकम्पिते क्षोणितले कदाचिद्, विधेविधानरिव मेरुदण्डः ॥
भिक्षु आचार बोले-मैंने एक बार मुनि भारीमाल से कहा, यदि कोई गृहस्थ तुम्हारे में ईर्यासमिति की क्षति बताए तो तुमको तेले का दण्ड आयेगा। (मुनि भारीमाल ने निश्चल मन से उसे सुना, स्वीकार किया।) ठीक ही कहा है-पृथ्वी के प्रकम्पित हो जाने पर भी क्या विधि के विधान की भांति कभी मेरुदण्ड (मेरुपर्वत) प्रकम्पित होता है ?'
३८. स्वीकृत्य सम्यक् सकलं स्वहृद्वत्, पप्रच्छ मां शक्षकवत् किलंषः ।
निष्काशयेत् कोपि मुधैव कि तद्, बहूनि मित्राणि पदे पदे नः ।। __अपने हृदय से सब कुछ सम्यक् प्रकार से स्वीकार कर, एक बार शैक्ष की भांति भारीमाल ने मुझे पूछा-'भंते ! हमारे पग-पग पर अनेक मित्र हैं। यदि कोई झूठी ही क्षति निकालेगा तो?'
३९. अशिक्ष्ययं तत्सदसद्दशासु, विधेयवत् तत्तु विधेयमेव । तत्सत्यतायामगदोपमं तत्, विद्धयन्यथा प्राक्कृतकर्मनाशि ॥
स्वामीजी ने कहा-'स्खलना हो या न हो, दूसरे के द्वारा स्खलना बतलाने पर जो करना है वह करना ही है। यदि स्खलना हुई हो तो वह दण्ड रोग-निवारण के लिए ली जानेवाली औषधि की तरह स्वीकरणीय होगा और यदि कोई झूठा ही आरोप लगाए तो भी वह दण्ड पूर्वकृत् कर्मों की निर्जरा के लिए स्वीकरणीय होगा।'
४०. तथ्यं हि तथ्यं भवदुक्तमित्थं, संश्रुत्य संपाल्य शमेन शिष्टिम् ।
आदर्शता सद्विनयस्य साक्षात्, संस्थापिताऽयं विदितः प्रसङ्गः ॥
भारीमालजी ने कहा-'भंते ! आपने ठीक कहा है, ठीक कहा है।' उन्होंने आचार्य भिक्षु के कथन को सही रूप में स्वीकार किया, उसका शान्तभाव से अनुपालन किया। इस आचरण से उन्होंने विनीत शिष्य का आदर्श स्थापित किया। यह प्रसंग अत्यन्त विश्रुत है।
४१. तस्मादयं शासनसूत्रधारोऽसूत्यर्हतेवेह मया गणेन्द्रः । आराध्य एवंष ततो भवद्भिश्चारित्रवच्चारुधियां धुरीणः॥
'जैसे तीर्थकर गणधरों को गणों को भार सौंपते हैं, वैसे ही मैंने भारीमाल को शासन का सूत्रधार बनाया है । तुम सब बुद्धिमान् शिष्य उसकी बाराधना उसी प्रकार से करना जैसे तुम चारित्र की आराधना करते हो।