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________________ २०० अप्यात्नधर्माधिकारघुर्याभिमानिनः । मुग्धत्वं तत् कियत् तद् वः, सम्यक्त्वं कथमागतम् ॥ ४६. अज्ञा तुम जिनधर्म के तत्त्वज्ञान से अज्ञ होते हुए भी अपने आपको धर्म के अधिकारी और धर्मधुरीण मान बैठे हो । यह तुम्हारी कितनी मूर्खता है ! बोलो, तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ? ४७. उन्मुक्ता आश्रवाः सर्वे, संवरस्पशंवजिता: । निर्जराऽनिर्णयास्तद् व:, सम्यक्त्वं कथमागतम् ।। तुम्हारे सभी आश्रवद्वार खुले हैं और तुम संवर के स्पर्श से रहित हो तथा निर्जरा के निर्णय को भी नहीं जानते । बोलो, तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ? ४८. कथं च बध्यते जीवः, कथं च परिमुच्यते । तत्राकुशलता तद् वः, सम्यक्त्वं कथमागतम् 11 जीव कैसे बंधता है और कैसे मुक्त होता है, इस विषय में भी तुम अनभिज्ञ हो तो तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ? ४९. विषमदृष्टयोऽप्यत्र, श्रीभिक्षु महाकाव्यम् समदृष्ट्यभिधाधराः । कुगुरुजालबद्धा वः, सम्यक्त्वं कथमागतम् ॥ तुम मिथ्यादृष्टि होते हुए भी सम्यक्दृष्टि कहलाते हो और कुगुरु जाल में बंधे हुए हो तो तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ? ५०. कुगुरुचामिता मुग्धा, बद्धहस्तास्ततः स्वयम् । सम्यक्त्वग्राहकास्तद् वः, सम्यक्त्वं कथमागतम् ॥ तुम कुगुरु के बहकावे में आ आकर और उनके सामने हाथ जोड़ जोड़कर सम्यक्त्व ग्रहण करते हो तो तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ? ५१. अनिवृत्तान्तराज्ञाना, मिथ्यात्यागपरायणाः । कुगुरून् गुरुपश्या वः, सम्यक्त्वं कथमागतम् ॥ तुम्हारे अन्तर् का अज्ञान तो मिटा नहीं है, फिर भी झूठे-झूठे त्याग करते हो और कुगुरु को गुरु मानते हो तो तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ? ५२. कुगुरुकमयोः शीर्षाऽऽधर्षं स्त्रिवारपाठतः । वन्दध्वे हर्षथस्तद् वः, सम्यक्त्वं कथमागतम् ॥
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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