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________________ पोरमः सर्गः १९९ • धर्म, क्रिया, रीति, आगम तथा समस्त औचित्य का जहां ध्वंस होता हो वहां पर मौन रहना मूखों का भूषण है। ४०. धर्मनाशे क्रियानाशे, सुसिद्धान्तार्थविप्लवे । अपृष्टेनापि वक्तव्यं, तत्स्वरूपप्रकाशने ॥ जहां धर्म का नाश, क्रिया का नाश तथा सत् सिद्धांतों का विप्लव होता हो, वहां इन सबका यथार्थ रूप प्रकाशित करने के लिए बिना पूछे भी बोलना चाहिए। ४१. तत्सूक्तिपथमालम्ब्य, कल्याणकपरायणः। प्राणान् मुष्टौ समादाय, जगर्ज धर्मकेशरी ॥ आचार्य भिक्षु एकमात्र कल्याण की भावना से ओतप्रोत होकर जनता को सरल-मृदु वाणी में समझाने लगे । प्राणों को मुट्ठी में लेकर वे धर्म केशरी भिक्षु गर्जने लगे । ४२. मन्व्यमन्तृसहायानां, सम्भवाऽसम्भवात् परः । स्वकर्तव्यपथारूढः, प्रावर्तत तपोधनः ॥ मानने वाले मिले न मिलें, सहायक हों या न हों, इसकी परवाह न करते हुए वे तपोधन अपने कर्तव्य पथ पर आरूढ होकर कार्य करने लगे। ४३. केबलाडम्बरिश्राद्धान्, प्रदिदृक्षून कदाग्रहान् । __ श्रद्धाघ्रष्टान् समुद्दिश्य, प्रोचे साक्षेपतः पुनः॥ ___ आचार्य भिक्षु श्रद्धाभ्रष्ट, केवल आउंबर दिखाने वाले, कदाग्रह करने वाले, केवल तमाशा देखने वाले श्रावकों को लक्ष्य कर आक्षेपपूर्वक कहने लगे। ४४. भो भो वेत्थ न सद्देवाऽऽचारं च सद्गुरोर्मतम् । वेदयततरां तद् वः, सम्यक्त्वं कथमागतम् ॥ हे श्रावको ! तुम शुद्ध देव, शुद्ध आचार और शुद्ध गुरु के मत को जानते ही नहीं तो बोलो, तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ? ४५. नवतत्त्वज्ञताहीना, शून्यालापा विकतामाः। वेवयततरां तद् वः, सम्यक्त्वं कश्रमागतम् ॥ तुम नव तत्त्व के ज्ञान से रहित एवं व्यर्थ आलाप तथा विकथा करने वाले हो तो बोलो, तुम्हारे में सम्यक्त्व कैसे आया ? .
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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