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पञ्चदशः सर्गः
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१८९. श्राद्धस्य श्रमणस्य तत्त्वविषये श्रद्धा समाना द्वयोः,
सम्यक्त्वी यदि वा च देशविरतिः स्यातां द्विधा श्रावको । ये सन्तः खलु सर्वथैव विरताः सावद्ययोगः सदा,
होत्थं श्रावकसाधुषु व्रतविधौ तुल्या न हि स्पर्शना ॥ १९०. तुर्यो दुणियते'स्त्रयोदशगुणस्थानस्थमन्तव्यतः,
स्थावान्तर्यमहो तदादिमगुणस्थाने समागच्छति । हिसायामघमन्यथा च सुकृतं मान्यं समस्तैस्ततः, पार्थक्यं करणस्तयोर्मननतोऽपार्थक्यमासूत्रितम् ॥ (युग्मम्)
कुछ लोग कहते हैं, साधु का धर्म भिन्न है और श्रावक का धर्म भिन्न है। स्वामीजी वोले-'तात्त्विक विषय में साधु और श्रावक-दोनों की श्रद्धा समान होती है । श्रावक दो प्रकार के हैं-सम्यक्त्वी श्रावक तथा देशविरति श्रावक । साधु सावद्य योगों से सर्वथा विरत होते हैं और श्रावक सावद्य योगों से अंशत: विरत होते हैं। इस प्रकार साधु और श्रावक की व्रताराधना की स्पर्शना समान नहीं है।
चौथे गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि के तथा तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली के मन्तव्य में कोई अन्तर नहीं होता। यदि दुर्भाग्य से तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली के मन्तव्य से चौथे गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि के मंतव्य में अन्तर आता है तो वह पहले गुणस्थान में आ गिरता है। वे सभी हिंसा में पाप तथा अहिंसा में धर्म मानते हैं। इस प्रकार साधु और श्रावक में मान्यता से ऐक्य है किन्तु करण-स्पर्शना से अन्तर है।' १९१. नाथद्वारमगान् मुदोदयपुराद् यो नैणसिंहस्य च,
जामाता श्वसुरोऽथ तं गमयितुं भिडं मुनि प्रार्थयेत् । स्वामी तत्प्रतिबोधनाय च तमप्राक्षीत् परीक्षापरः,
तत्त्वज्ञोऽसि न वा निवेदयति स ज्ञातास्म्यहं श्रावकः ॥ . १९२. आधार्मिकवेश्मवास ऋषये कि कल्पते ? नो ततः,
सन्तस्ते निवसन्ति तत्र समये क्वाप्यागतं स्यात्तथा । साधूनां किमु नित्यपिण्डनयनं युक्तं ? न तस्योत्तरं, केचिल्लान्ति तदा तथैव गदितं श्रुत्वा पुनः पृच्छयते ॥
१. नियति:-भाग्य (नियतो विधिः दैवं भाग्यं भागधेयं-अभि० ६।१५)
दुर्णियतेः-दुर्भाग्यात् । २. भिदृ० २२५।