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श्रीभिक्षुमहाकाव्यम्
भविष्य में चूना भी लगेगा (अर्थात् बड़ा भवन भी निर्मित होगा)। कुछ समय पश्चात् वहां बड़ा भवन निर्मित हो गया। यह ठीक ही कहा है कि जिसमें सूई का प्रवेश होता है वहां मूशल का प्रवेश भी सहजतया संभव हो सकता है । जहां एक बार पतन-स्खलना होती है वहां बार-बार स्खलनाएं संभव हैं।'
१७५. जीवानां परिरक्षणं मुनिकृते शास्त्रे जिनः कीर्तितं,
तत् सत्यं हि यथा स्थिता उदतरद् रक्ष्यास्तथैव व्रती। दुःखं कहि मुमुक्षणा त्रिविधिना तेभ्यो न देयं मनाग, दातव्यं निखिलाङ्गिनेऽभयमहादानं वरं सर्वदा ॥
किसी ने कहा-'भीखनजी ! आगमों में जिनेश्वर भगवान् का कथन है कि साधुओं को जीवरक्षा करनी चाहिए। आप इसे क्यों नहीं मानते ?' स्वामीजी ने उत्तर देते हुए कहा-भगवान् ने जो कहा वह सत्य है। इसका तात्पर्यार्थ यह है कि जीव जिस प्रकार स्थित हैं उन्हें वैसे ही रखना चाहिए । मुमुक्षु उन जीवों को तीन करण और तीन योग से तनिक भी दुःख न पहुंचाए । सभी प्राणियों को सर्वश्रेष्ठ महादान अभयदान दे ।
१७६. यस्मिन् साध्यमखण्डितं नहि कदा यत् साध्यविध्वंसकं,
पुष्टालम्बनमस्ति तत्खलु यथा सिद्धो जिनेन्द्रः प्रभुः। दण्डाद्या घटनाशका अपि यतो नो पुष्टमालम्बनं, हेतू सक्रियनिष्क्रियौ च फलभाग योगोपयुक् सक्रियः ॥
जिस साधन में साध्य अक्षुण्ण रहता है, तथा जो साधन साध्य का विध्वंस करने वाला नहीं होता, वही पुष्टालम्बन साधन कहा जाता है। जैसे-मोक्षाभिलाषियों के लिए सिद्ध भगवान् और जिनेन्द्रप्रभु यथार्थ साधन हैं, क्योंकि वे साधन-गुणसम्पन्न हैं। यहां कोई यह तर्क भी कर सकता है कि घटादि निर्माण में जो दंड-चक्रादि परम आवश्यक साधन हैं, वे भी पुष्टालम्बन साधन पद को प्राप्त क्यों नहीं करते ? इसका इतना ही समाधान पर्याप्त है कि जो दण्ड-चक्रादि निर्माण कार्य में सहायक बनते हैं वे उस घटादि के विनाश में भी सहायक बन जाते हैं। इसलिए वह साधन पुष्टालम्बन साधन नहीं बनता, जो कि निर्माण की तरह विनाश में भी सहयोगी बन जाए। हेतु के दो प्रकार हैं-सक्रिय हेतु और निष्क्रिय हेतु। सक्रिय हेतु वह है जो मन, वचन और काया के साथ-साथ करने, करवाने और
१. भिदृ० ६८ । २. वही, १५० ।