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________________ श्रीमहाकाव्यम् स्वामीजी से एक व्यक्ति ने पूछा- नदी पार करने में यदि धर्म है तो मूर्ति के सामने फूल चढाने में धर्म क्यों नहीं होगा ? तब स्वामीजी ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा - 'हम नदी में तभी उतरते हैं जब गंतव्य तक पहुंचने का दूसरा मार्ग न हो । मार्ग होने पर हम नदी-संतरण नहीं करते । नदीसंतरण अपवाद मार्ग है । तुम्हारे जो फूल चढाने की पद्धति है वह उत्सर्ग विधि है । तुम सूखे और मुरझाए फूलों को छोड़कर प्रतिमा के समक्ष कच्ची कलिकाओं को चढाना पसन्द करते हो। इसलिए नदी पार करने के साथ फूल चढाने की तुलना नहीं हो सकती ।' १३८ ८२. साधुत्वं समयेऽद्य पूर्णमृषिभिर्नो पाल्यतेऽत्रोच्यते, तुर्या कथमष्टमं यदभवत् तत् कीदृशं साम्प्रतम् । दुर्दिष्टाबलगात्रतः किमु कणाद्याहारतस्तद् भवेन्, नो चेत् तन्नु महाव्रताऽवनमिदं स्यात् खण्डशस्तत् कथम् ॥ कुछ लोग कहते हैं - इस पांचवें अर में श्रामण्य का पूरा पालन नहीं किया जा सकता है । उनको स्वामीजी ने पूछा - चौथे अर में तेला कितने दिनों का होता था ? वे बोले-तीन दिन का । इस पांचवें अर में तेला कितने दिनों का होता है ? वे बोले - तीन दिन का । तब स्वामीजी ने पूछा - इस कलिकाल में शारीरिक संहनन की कमजोरी के कारण क्या एक दाना खाकर तेले की तपस्या की जा सकती है ? नहीं की जा सकती । तो फिर पंचमकाल का बहाना लेकर महाव्रतों का खंडश पालन कैसे किया जा सकता है ? ८३. भ्रष्टः साधुतया तथाऽपि रुचिरो धौताम्बुपानादिकर्लक्षानामधमर्णको यदि पणात् प्रण्यं प्रगृह्णाति च । कि तैस्तस्य महाधमर्ण्यमिह तन्नश्येन्नितान्तं पुनर्यायात् तां किमु साधुकारपदतां नो चेद् व्रतादस्तथा ॥ किसी ने कहा - 'कोई साधु साधुपन से भ्रष्ट हो गया है, फिर भी वह हम गृहस्थों से तो अच्छा ही है, क्योंकि अब भी वह धोवन पानी पीता है, लोच आदि कराता है, पैदल चलता है।' इस बात पर स्वामीजी ने कहा -- एक व्यक्ति ने लाखों रुपयों का दिवाला निकाल दिया, पर वह अब बाजार से नगद पैसा देकर सौदा खरीदता है । वह इस सौदे का साहूकार हो सकता है । क्या उसकी इस साहुकारिता मात्र से लाख रुपयों का दिवा १. भिदृ० ९१ । २. वही, ६६ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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