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________________ पञ्चदशः सर्गः १३७ त्याग करने पर अपने प्रेमी के न आने के कारण उस स्त्री ने आत्महत्या कर ली। अब चिंतन का विषय यह है कि धन और बकरे के बचने में धर्म मानकर उसका सम्बन्ध अगर त्याग कराने वाले उपदेशक संतों के साथ जोड़ा जायेगा, तो उस स्त्री के मरने का सम्बन्ध भी उपदेशक संतों के साथ अपने आप ही जुड़ जायेगा । स्थिति सर्वत्र समान है । जीव हिंसा मत करो। चोरी मत करो। परस्त्रीगमन मत करो-इतना कहना मात्र ही धर्म नहीं है । परन्तु इस कथन के पीछे जो उद्देश्य है उसका चिंतन आवश्यक है । यदि उद्देश्य बकरे आदि के रक्षण का हो, तो वह राग आदि से संवलित होने के कारण शुभ नहीं है और यदि वही उपदेश वधक, चोर और पारदारिक की आत्मा के उद्धार के लिए हो तो वह शुभ है और वही तीर्थंकर द्वारा सम्मत ८०. आज्ञाबाह्यवृषप्ररूपकजनाः पृच्छ्याः शिरस्कस्य वः, - कः कर्ता समगात् कुतः कतिपर्णरित्यादिकं वाच्यताम् । अर्हच्छिष्टितिरस्कृतं हि सुकृतं निर्मूलकं तस्य च, व्युत्पत्या रहितस्य व कथमुपादेयत्वमागच्छति । कुछ लोग कहते हैं-भगवान् की आज्ञा के बाहर भी धर्म होता है । तब स्वामीजी बोले-आज्ञा में धर्म है-यह तो भगवान के द्वारा प्रतिपादित है । आज्ञा के बाहर धर्म है-यह किसके द्वारा प्रतिपादित है ? जैसे किसी ने पूछा- तुम्हारे सिर पर पगड़ी है, वह कहां से आई ? तब जो साहकार होता है वह तो उसकी उत्पत्ति का मूल स्रोत बता देता है । वह साक्षी करा देता है । अमुक बजार से खरीदी, अमुक रंगरेज के पास मैंने रंगाई। पर जो व्यक्ति पगड़ी चुराकर लाया हो, वह उसका मूल स्रोत नहीं बता सकता। वह थोड़े में अटक जाता है । इसी प्रकार जो आज्ञा के बाहर धर्म बतलाता है वह निर्मूल है । उसका कोई आधार नहीं है। ऐसी स्थिति में वह कथन कैसे उपादेय हो सकता है ?' ८१. वाहिन्युत्तरणे वृषो यदि तथा पुष्पावरोहे न किं, मन्याऽभावतया तथा वितनुमो मार्गेऽपवादे वयम् । यौष्माक कुसुमावरोहणमिदं व्युत्सर्गमार्गेण च, शुष्काणां हरणाद् यदामकलिकोपादानतो ह्यन्तरम् ॥ १. भिदृ० १४८ । २. वही, १३१ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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