SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चदशः सर्गः १३५ (ख) किसी व्यक्ति के जीभ और आंख में भयंकर पीड़ा होने लगी । वह वैद्य के पास गया | वैद्य ने दोनों बीमारियों के लिए पृथक्-पृथक् दवाइयां दीं और उसे समझा दिया । परन्तु प्रमाद और विस्मृति के कारण उसने जीभ की दवाई आंख में और आंख की दवाई जीभ पर डाली । परिणाम स्वरूप उसकी आंखें और जीभ - दोनों बिगड़ गईं। इसी प्रकार जो संयम और असंयम, व्रत और अव्रत तथा संसार और मोक्ष के मार्ग को पहचान नहीं पाते उन्हें कष्ट उठाना पड़ता है । ७५. दत्ताः केन चणा दयार्द्रमनसा पिष्टाः कयाचिच्च ते, तत्पूपा रचिताः कयापि रवणाव्रङ्केन भुक्तास्ततः । लग्ना तृट् परिपायितं सुसलिलं केनापि तेषूच्यतां, सम्यक्साधनसायचंतनतया को धर्मधुर्योऽधिकः ॥ एक बूढ़ा भिखारी भीख मांगता हुआ घूम रहा था । एक दयालु सेठ ने उसे सेर भर चने दिए। दूसरी बहिन ने उन चनों को पीसकर आटा बना दिया। तीसरी बहिन ने उस आटे की रोटियां बना कर बूढ़े को दे दीं। बूढे ने सारी रोटियां खा लीं। कुछ समय पश्चात् उसे तीव्र प्यास लगी । चौथी बहिन ने उसे ठंडा-मीठा सजीवं जल पिलाया। इस प्रकार चारों ने उस बूढ़े भिखारी को सहयोग दिया । प्रश्न है साध्य - साधन चिंतन के अनुसार चारों में अधिक धर्म का भागी कौन बना ?' यह सावद्य दान है । इसमें धर्म का प्रश्न ही नहीं है । ७६. पञ्चानां च शतं शतं मणमितं नृणां चणास्तेऽक्षता, दत्ता दीनजनाय केन दयया केनापि ते सेकिमाः । केनैतत्पृथुकीकृता घृतमुखैः पूपीकृताः केनचित्, त्यक्ता एकविशा प्रभोर नुमते राराधकस्तेषु कः ॥ पांच सौ मन पांच व्यक्तियों ने साझेदारी में चनों की खेती की। चने पैदा हुए | पांचों ने इस खेती की उपज का दान कर धर्म करना चाहा । उनमें से एक व्यक्ति ने सौ मन चने भिखारियों को बांट दिए । दूसरे व्यक्ति ने सौ मन चनों के भूंगड़े बनाकर बांट दिए । तीसरे व्यक्ति ने सौ मन चनों की घूघरी बनाकर गरीबों को खिलाई । चौथे ने सौ मन चनों की रोटियां बनवाई और साथ में कढ़ी बनाकर खिलाई। पांचवें व्यक्ति ने सौ मन चनों का विसर्जन कर उन्हें छूने का भी त्याग कर दिया ।' १. भिदृ० ४५ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy