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________________ १२९ पञ्चदशः सर्गः हो तो गधे पर बिठाकर लाने में भी धर्म होगा। साधु तो उन दोनों की ही सवारी नहीं कर सकता। (ख) किसी ने कहा-'महाराज ! मुझे असंयती को दान देने का त्याग कराओ।' स्वामीजी बोले-'तुमने मेरे वचनों पर श्रद्धा, प्रतीति और रुचि की है इसलिए शुभ भावना से त्याग कर रहे हो या मुझे बदनाम करने के लिए असद्बुद्धि से त्याग कर रहे हो ?' ___ यह सुनकर वह लज्जित होकर चला गया।' ६६. वेषी कोऽपि जजल्प मह्यमधुना चर्चा भवान् पृच्छतु, तं पप्रच्छ मुनीश्वरो वद तदा सञ्जी ह्यसञी त्वकम् । सञी केन नयेन इत्यनुयुजाऽसञ्जीत्यवक् को नयस्तन्नो द्वावपि केन इत्युचिततो मुष्टि च दत्त्वा गतः ॥ उदयपुर में स्वामीजी के पास एक साधु आया और बोला- 'मुझे आप प्रश्न पूछे।' स्वामीजी बोले-'तुम हमारे स्थान पर आए हो, फिर क्या प्रश्न पूछे ?' वह बोला-'कुछ तो पूछे।' स्वामीजी ने पूछा-'तुम संज्ञी हो या असंज्ञी ?' 'मैं संज्ञी हूं।' 'तुम संज्ञी हो. इसका न्याय (प्रमाण) बताओ।' 'नहीं, नहीं, मैंने गलत कह दिया, उसके लिए 'मिच्छामि दुक्कडं'। मैं असंज्ञी हूं।' स्वामीजी ने फिर पूछा --'तुम असंज्ञी हो उसका न्याय बताओ।' वह बोला-'मिच्छामि दुक्कडं'। मैं न संज्ञी हूं, न असंज्ञी हूं।' स्वामीजी ने फिर पूछा -संज्ञी-असंज्ञी दोनों नहीं हो, यह किस न्याय से? तब वह रोष में आकर जाते-जाते स्वामीजी की छाती पर मुक्के का प्रहार कर चला गया।' ६७. 'लोया' इत्यभिधं जहार भषणश्चैकं तदेकं तदा, तत् पृष्ठे प्रति धावतः प्रपतनान्नष्टं करस्थं च्युतेः। एकं वह्निरचीषमेकमहरन् मार्जार एकं पुनरेवं चैकमहावते विगलिते पञ्चापि तद्वत् तथा ॥ १. भिद. १५३ । '२. वही, ११। ३. वही, ४७ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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