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________________ ११२ श्रीमिक्षुमहाकाव्यम्. 1 हिंसाधर्मी (दृष्टांत देते हुए) कहते हैं - हिंसा के बिना धर्म नहीं होता । दो श्रावक थे । उनमें से एक ने अग्नि के आरंभ का त्याग किया: और दूसरे ने नहीं किया । दोनों ने चने खरीदे । जिसे अग्नि के आरंभ का त्याग नहीं था, उसने चनों को भून कर भूंगड़े बना लिए और जिसने अग्नि के आरंभ का त्याग किया था वह कोरे चने चबा रहा था । इतने में एक मास के उपवास के पारणे के लिए मुनिराज उसके घर पधारे। जिसे त्याग नहीं था, उसने मूंगड़े देकर तीर्थंकरगोत्र का बंध कर लिया और जिसे त्याग था वह देखता रह गया । वह क्या दान देता ? इसका फलितार्थ है कि हिंसा -से धर्म होता है, हिंसा के बिना धर्म नहीं होता ।' तब प्रत्युत्तर में स्वामीजी बोले – 'दो श्रावक थे । उनमें से एक ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार किया और दूसरे ने अब्रह्मचर्य का त्याग नहीं किया । उसने शादी की। उसके पांच पुत्र हुए। उन्होंने धर्म का तत्त्व समझा । उनमें से दो वैरागी बने । पिता ने उन दोनों को हर्षोल्लास के साथ दीक्षा की स्वीकृति दी । बहुत हर्षोल्लास आया, उससे उसने तीर्थंकर गोत्र का बंध कर लिया । तुम हिंसा में धर्म कहते हो तो तुम्हारे मतानुसार अब्रह्मचर्य में भी धर्म होगा । तुम्हारे मतानुसार हिंसा के बिना धर्म नहीं होता तो अब्रह्मचर्य के बिना भी धर्म नहीं होता।' इस प्रकार उत्तर सुनकर वह हतप्रभ हो उत्तर देने में असमर्थ हो गया ।' ३७. पुण्यं मिश्रमघं च किं भवति यत् सावद्यदानेष्विति, शंका पुंत्रयचेतसि व्यपगतौ दीक्षार्थिनः सन्ति ते । कि मौनेन तदोपदेशसमये वाच्यं यथार्थं फलं, मौनं त्वर्यमदन्तरायपतनात् तद्वर्तमाने हि यत् ॥ कुछ कहते हैं - 'सावद्य दान के विषय में भगवान् ने मौन रखने के लिए कहा है । इसलिए केवल वर्तमान काल में ही नहीं, सदैव मौन रखना चाहिए, पुण्य या पाप नहीं कहना चाहिए।' इस पर स्वामीजी ने दृष्टांत दिया- 'तीन व्यक्ति थे । एक व्यक्ति सावद्य दान देने में पुण्य मानता था, दूसरा मिश्र धर्म मानता था और तीसरा पाप मानता था । इन तीनों ने एक संकल्प किया- 'यह संदेह मिट जाए तो हम दीक्षा ग्रहण कर लेंगे ।' अब इस संदेह को दूर करने के लिए वे साधुओं के पास गए। साधु मौन ही रहे तो उनका संदेह कैसे मिटेगा ? उपदेश-काल में जैसा फल होता है, उसको बताना चाहिए। वर्तमान काल में मौन रखने का तात्पर्य है कि उससे अंतराय का प्रसंग होता है । अतः वर्तमान में मौन उत्तम है, अन्य काल में नहीं ।" १. भिदृ० २१० । २. वही, २८५ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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