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________________ ‘पञ्चदशः सर्गः १११ नाम है भीखण ।' तब वे बोले-'आपको देखने की मन में थी ।' तब स्वामीजी ने कहा-'देखो ?' वे बोले-सब बात अच्छी की, पर एक बात अच्छी नहीं की।' स्वामीजी ने पूछा-'क्या ?' तब उन्होंने कहा'हम बाईस संप्रदायों के साधु हैं उन्हें आप असाधु बतलाते हैं।' स्वामीजी ने पूछा-'तुम किनके साधु हो ?' तब उन्होंने कहा-'हम सामीदासजी के साधु हैं।' स्वामीजी ने कहा-तुम्हारे संप्रदाय में ऐसा लिखत (विधान) है कि इक्कीस संप्रदायों में से कोई साधु तुम्हारे संप्रदाय में आए तो नई दीक्षा देकर उसे संप्रदाय में मिलाएं । ऐसा लिखत है, क्या तुम जानते हो ?' वे बोले-'हां ! हम जानते हैं।' स्वामीजी ने कहा-'इक्कीस संप्रदाय को तो तुम लोगों ने ही असाधु स्थापित कर दिया । गृहस्थ को दीक्षा देकर अपने में मिलाते हो उसी प्रकार उन्हें भी दीक्षा देकर अपने में मिलाते हो। इससे इक्कीस संप्रदायों को तुमने गृहस्थ के बराबर समझ लिया। इस दृष्टि से इक्कीस सम्प्रदायों को तुमने ही असाधु स्थापित कर दिया। ३५. व्यंग्यात् कश्चन ना परस्परशिरःसंस्फोटनार्थ जगौ, भिक्षो! ते ह्यमुकोऽमुकोत्यवगुणान निष्काशयत्याह तम्। साधीयोऽनुदिनं च तान् कतिपयानिष्काशयामि स्वयं, कांश्चिनिर्गमयेच्च सोऽयमयकवं भाव्यमेवाऽमलम् ॥ किसी व्यक्ति ने परस्पर भिड़ाने की दृष्टि से व्यंग करते हुए कहा'भीखणजी । अमुक अमुक व्यक्ति आप में अनेक दोष निकालते हैं।' भीखणजी बोले- 'दोष निकाल रहे हैं, डाल तो नहीं रहे हैं ? यह अच्छा है। प्रतिदिन में स्वयं कुछेक दोषों को निकालता हूं और कुछ वे विरोधी लोग निकालते हैं । मुझे तो अवगुणमुक्त होकर पवित्र होना ही है।" ३६. भ्रष्टाः केन चणाः सते वितरणात तीर्येशगोत्री ततः, तत् त्यागी वितरेच्च किं ननु यतो हिंसामृते नो वृषः। कढः कोऽप्यभवत् सुताश्च यमितास्तस्माग्जिनाख्यार्जको, रामाकामहरस्तया किमु न धर्मो व्यवायात् तथा ॥ १. भिदृ० १० । २. वही, १३ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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