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भोभिभुमहाकाव्यम् गुलोजी बोले-'स्वामीनाथ ! दस रुपये लगे हैं । कुछ हल जोतने के भाड़े के कुछ निदाई के और कुछ बीज के । कुल दस रुपए लगे ।' .: स्वामीजी ने पूछा-'वापस कितने आए ?'
तब उन्होंने ने कहा- 'स्वामीनाथ ! लगभग दस रुपयों का माल वापस आया-कुछ रुपयों के मूंग, कुछ चारा, कुछ बाजरी, सब दस रुपयों का माल वापस आया । जितना लगा, उतना आ गया। बेचारी खेती का कोई दोष नहीं।'
तब स्वामीजी बोले-'गुला! ये दश रुपये कोठे के आले में पड़े रहते तो तुझे इतना पाप तो नहीं लगता। ऐसा आरम्भ क्यों किया? तुम्हारा समय भी व्यर्थ गया और तुम धर्मध्यान से भी वंचित ही रहे।" ०७. श्रुत्वा निःसृतमेकमाशु कमृषि स्वाम्याह खेदो न मे,
चण्डोति प्रकृतेर्गणस्थयमिनां संक्लेशकृत् सोऽभवत् । एक्वे. कस्य गडावतीवविषमे प्राणापहारोत्सुके, देवात् प्रस्फुटिते विनौषधमहो का नाम चिन्ता ततः॥
देसरी का 'नाथो' नाम का साध था। उसने स्त्री, मां और पुत्री को छोड़ दीक्षा ली, पर उसकी प्रकृति कठोर थी। वह अच्छी तरह आज्ञा में नहीं चलता। वह लगभग तीन वर्ष गण में रहा, फिर उससे अलग हो गया। वह जिनके पास था, उन साधुओं ने स्वामीजी से कहा-'नाथो गण से अलग हो गया।'
तब स्वामीजी बोले-'किसी के फोड़ा बहुत संक्लेशकारी और पीडाकारी था। वह प्राणापहारी और अत्यंत विषम भी था। वह पका और बिना शौषध ही भाग्यवश फूट गया। अब उसकी चिन्ता कैसी ?
'ऐसे ही दुःखदायी के अलग हो जाने पर अप्रसन्नता नहीं होती।" प. श्राद्धा वो दवते न दानमणुकं दीनादिकेमभ्यस्ततो, भिक्षुः प्राह विनोदतोऽधिकवरं युष्मत्कृते वाचकम् ।
वाप्यासन् दश आपणा नव गता पृष्ठस्थ एकस्तदाऽहं ह्येवाऽऽयविभागवानिति न किं हृष्येन्न यूयं तथा ॥
· कुछ लोग बोले- 'भीखणजी ! तुम्हारे श्रावक किसी को दान नहीं देते । ऐसी तुम्हारी मान्यता है।'
तब स्वामीजी बोले-'किसी शहर में दस दुकानें थीं। उसमें से नौ * व्यापारी दुकानें बंद कर किसी शादी में चले गये। पीछे से कपड़ा खरीदने
१. भिदृ० ४। २. वही, ५।