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________________ पञ्चदशः सर्गः थे, उस दुकान का शहतीर टूट गया। सैकड़ों मन वजन नीचे गिरा:। इस बात को सुन स्वामीजी ने कहा-'जो हमें दुकान छुड़ाने में रहे, उन पर छमस्थ स्वभाव के कारण आक्रोश की लहर आने का प्रसंग था। पर उन्होंने हमारा उपकार ही किया। (यदि हम वहां रहते तो आज क्या होता ?)' ऐसे थे स्वामीजी क्षमाशील ।' ५. कश्चित् प्राह मुनेरनिष्टमशनं प्रामाधमेवाऽवतं, स्वामी चाय तमभ्यधान मुहरनिष्टं वा कृतं शेषितम् । तेनेष्टं हि निवेदितं ग्लपयता नो चेत् कथं दायिनां, धर्मः स्यात्तदनिष्टपोषकतया सदभिः समीक्यं च तत् ॥ पीपाड़ में आचार्य रुघनाथजी के शिष्य जीवणजी ने आचार्य भिक्षु से. कहा-'साधु आहार करता है, वह 'अवत' और 'प्रमाद' है।' तब स्वामीजी ने कहा- 'जो काम भगवान की आज्ञा में है, वह अच्छा है।' पर जीवणजी ने यह बात मानी नहीं। फिर स्वामीजी ने पूछासाधु आहार करता है वह काम अच्छा है या बुरा?' . । जीवणजी ने कहा- 'साधु आहार करता है, वह बुरा काम है.. त्याग करता है, वह अच्छा काम है।' गोचरी आदि के लिए जाते-आते समय रास्ते में वे मिलते, तब स्वामीजी पूछते-'जीवणजी ! बुरा काम करके आए हो या जाकर करना इस प्रकार बार-बार पूछने से जीवणजी सकपका गए और बोले'भीखणजी ! साधु आहार करता है, वह अच्छा ही काम है।" ६. पृष्टेनोक्तमधीशपूर्वसुहृदा काष्यं कृतं तत्र कि, लग्नं वै दशरूप्यकाण्यऽथ वदाऽऽयः किञ्च तावन्मितः। स्वाम्याख्यद् दशरूप्यकंर्गृहगतः किं दुःखितं ते तदाऽऽरम्भाद्यः समयो मुधैव गमितः सद्धर्मतो वञ्चितः ॥ कंटालिया में भीखणजी स्वामी के मित्र का नाम था गुलोजी गादिया। उससे स्वामीजी ने पूछा-'गुला ! तुमने खेती की है ?' 'हां, स्वामीनाथ ! की है।' स्वामीजी ने पूछा-उपज कितनी हुई और खर्च कितना लगा?" १. भिद० २।। २. वही, ३ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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