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________________ चतुर्दश: सर्ग: ६७. सुपात्रेभ्यो देयं त्रिकरणसुयोग वितरणं, सदा शीलं पाल्यं समलहृतिलक्ष्मैकललितम् । तपस्तप्यं शुद्धाध्यवसितिपुरस्तद्धिसुतपः, शुभाभावा भाव्या भवति खलु भावानुगफलम् ॥ हे भव्यो ! विशुद्ध तीन करण और तीन योग से सुपात्र को दान देना चाहिए | सब दोषों से रहित लक्षणों वाले निर्दोष शील का पालन सदा करना चाहिए । शुद्ध अध्यवसाय पूर्वक तप तपना चाहिए क्योंकि वही सुतप है और सदा शुभ भावना करनी चाहिए क्योंकि भावानुसार ही फल मिलता है । ६८. निशम्यैतां सत्यां व्रतिपतिगिरं सभ्यभविनः, समुल्लासः पूर्णा ऋतनयसमा कृष्टमनसः । स्मिताक्षाः सल्लक्ष्याः प्रतिपलमतृप्ताः श्रवणतः, श्रयन्ते तं भुङ्गा इव रससुगन्धं सुमगणम् ॥ ९१ वे सभ्य भव्यजन आचार्य भिक्षु की सत्यवाणी सुनकर उनके सत्यग्राही वचनों से आकृष्ट हुए, पूर्णरूप से उल्लसित हुए। जैसे भ्रमर सौरभयुक्त सुमनों पर मंडराते हैं वैसे ही वे प्रसन्न भव्यजन आचार्य भिक्षु की वाणी से तृप्ति का अनुभव न करते हुए निरंतर सलक्ष्य उनकी उपासना में निरत रहने लगे । ६९. पुरा यावज्जीवं त्रिविधविधिवत्पञ्चक महाव्रतान्यच्छोद्देश्य रुप विशति तच्छक्तिरहितान् । ततस्तत्पञ्चाणुव्रत सगुणशिक्षाव्रततति, विना सम्यक्त्वं तद् द्वयमपि यथार्थ नहि भवेत् ॥ स्वामीजी सर्वप्रथम धर्मानुरागियों को पांच महाव्रतों को यावज्जीवन तीन करण, तीन योग से स्वीकार करने की बात कहते । जो महाव्रतों को ग्रहण करने में असमर्थ होते उन्हें पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों - इस प्रकार बारह व्रतों को स्वीकार करने का उपदेश देते और वे यह भी कहते कि सम्यक्त्व के बिना ये दोनों यथार्थ नहीं बन सकते । ७०. प्रबुध्यन्तेऽनेके निजहित विलुब्धा भविजना, निशाध्वान्ताक्रान्ताम्बुजचयववऽकैरिवतर्कः । बहुभ्यो वर्षेभ्योऽमिलदमलसाफल्यमतुलं, प्रजाताः सन्तो व्रतिन इह नाना पुरपुरे ॥
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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