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रस भाव विमर्श
रस
रस शब्द की प्राचीनता वेदों से ही समुपलब्ध है । लौकिक रस एवं काव्य जगत् के में महान् भेद है तो भी वेद में रस शब्द का उल्लेख सोमरस के अर्थ में दिया गया है' । काव्य जगत् में प्रकाश्यमान रस का भी स्थान वैदिक - साहित्य में निर्दिष्ट है ।
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'रसो वै सः, रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दीभवति । "2
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इस प्रकार उस आनन्दार्थ में भी अभिव्यक्त है । वैदिक साहित्य में रस - भाव आदि शब्दों का यद्यपि उल्लेख अवश्य है तथापि साहित्यिक सम्प्रदाय में इसके स्वरूप आदि के निर्णय का श्रेय सर्वप्रथम नाट्यशास्त्र प्रणेता आचार्य भरत मुनि को ही है ।
काव्य मीमांसाकार राजशेखर ने भी काव्य मीमांसा के प्रथम अध्याय के आरम्भ में ही लिखा है कि रस का उपदेश सर्वप्रथम प्रजापति ने नन्दिकेश्वर को किया ।
रामायण आदि प्राचीन ग्रन्थों में भी आठ रसों का उल्लेख मिलता है ।
ध्वन्यालोक निर्माता आनन्दवर्धनाचार्य ने भी रामायण को करुण रस प्रधान कहा है । आनन्दवर्धनाचार्य के ध्वन्यालोक और भवभूति के उत्तररामचरित से आदिकाव्य वाल्मीकि रामायण में करुण रस का परिपाक समर्थित है।
आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में रस की प्राचीनता को स्वीकार किया है । भरत मुनि ने अपने अभीष्ट ग्रन्थ में कहा है कि रस के बिना किसी भी अर्थ की प्रवृत्ति नहीं होती । इन्होंने अलङ्कार, गुण और दोष के रस संत्रयत्व पर प्रकाश डाला है । महाकाव्य के लिये रस एक आवश्यक तत्त्व है, दण्डी, भामह आदि इसे स्वीकार करते हैं । शब्दप्रधान शास्त्र भी रससिक्त होने पर उपभोग योग्य बन जाता है ।
अग्निपुराण के अनुसार वाग्वैदग्ध्यजन्य प्रधान होने पर भी काव्य में रस ही जीवन
है" ।
नाट्यशास्त्र के छठे-सातवें अध्याय में रस का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है । इस की निष्पत्ति के सम्बन्ध में भरत मुनि का सूत्र इस प्रकार मिलता है -
"विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः
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विभिन्न आचार्यों ने अपनी-अपनी प्रतिभा के अनुसार इस सूत्र की भिन्न-भिन्न व्याख्या
की है ।
भरत सूत्र के 'संयोगात्' और 'निष्पत्ति:' इन दो शब्दों को लेकर विद्वानों में मतभेद
हैं ।