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________________ . प्रथम अध्याय / 17 ही है क्योंकि हर्दी भी नींबू के रस से युक्त होने पर शीघ्र ही कुमकुम रूप को धारण कर लेती है । यहाँ उक्त गम्भीर दर्शन को महाकवि ने प्रगट कर अपनी अप्रतिम दार्शनिक प्रतिभा का परिचय दिया है। इसी प्रकार उसी सर्ग में अव्यहित गति से चलते हुए दार्शनिक श्लोकों की झाँकी दर्शनीय "अङ्गाङ्गिनोनैक्यमितीह रीतिर्न भो प्रभो भाति यथाप्रतीति । सत्या तदुक्तिः शतपत्रक्षनीतिगुणेषु नष्टेषु परेऽपि हीतिः॥" येषां मतेनाथ गुणः स्वधाम्ना सम्बद्धयते वै समवायनाम्ना । तेषां तदैक्यात्किल संकृतिर्वानवस्थितिः पक्षपरिच्युति॥126 प्रकृत पद्य में कहा गया है कि हे प्रभो, जिस प्रकार यह यथार्थ ज्ञान बताया गया है, अङ्ग और अङ्गी में ऐक्य है, ऐसा विश्वास नहीं होता। तुम्हारी उक्ति सत्य ही है । गुणों के नष्ट होने पर ऐक्य सर्वथा सम्भव है । इस प्रसङ्ग में कहे हुए दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन करने के लिये अधिक समय की अपेक्षा है जहाँ पर नैयायिक सिद्धान्त का भी विरोध प्रतीत होता है । समवाय सम्बन्ध से गुण गुणी में निवास करता है, इसको मानने से ऐक्य की क्षति अथवा अनवस्था दोष, अन्यथा परपक्ष की क्षति भी प्रतीत होती है । दार्शनिक दृष्टि से पूर्ण निम्नस्थ श्लोक भी दर्शनीय है"सम्मेलनं नो तिलवत्प्रसक्तिर्नान्धाश्मवच्चैतदश्क्यभक्तिः । सत्तत्तवयोरस्ति तदात्मशक्तिः प्रदीपदीप्त्योरिव तेऽनुशक्तिः ॥27 जिसका भाव है कि तिल और तिल की राशि में अन्तर नहीं होता। दोनों समान ही होते हैं । अन्धा पत्थर के समान व्यवहार न करना ही श्रेयकर है । आपकी अनुशक्ति, आपकी प्रेरणा जलते हुए प्रदीप और उसकी प्रभा के सदृश है । अर्थात् प्रदीप की प्रभा प्रदीप से पृथक् नहीं है वैसे ही आत्मा और उसकी शक्ति आत्मा से पृथक् नहीं है। ऐसे ही इसी सर्ग का अग्रिम श्लोक भी उपादेय है... "न सत्सदैकं गुणसंग्रहत्वाद् घृतादयो मोदकमस्तुत्तत्त्वात् । अनैक्यमेवास्य तथैतु किंचिदेकैकतो नैक्यमुपैतिकिंचित्॥"28 तात्पर्य है कि गुणाधान से ही एक सत् सदा नहीं रहता । घृत से बना हुआ मोदक घुताकार में ही नहीं दीखता । इस प्रकार भेद हो, तो कुछ भेद रहे । परन्तु घृत होने से यह घुत ही है, जैसे एकता की प्रतीति होती है, वैसे ही एकता हो सकती है। - जिस प्रकार दारा पद बहुबचन एवं पुलिंग है परन्तु उसका वाक्य अर्थ स्त्रीलिंग और अएक ही होता है वैसे ही अनेक में भी एकत्व का भान होता है, यही रम्य विमर्श है । सम्पूर्ण बल प्रतिबिम्ब रूप में है यथार्थतः ज्ञान के लिये एक ही शेष समझना चाहिए । इस भाव को महाकवि ने निम्न रूपों में दर्शाया है -
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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