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10 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
जिसका तात्पर्य यह है कि यह राजा ज्योतिरीश कान्तिसम्पन्न है अथवा ज्योतिष शास्त्र का ज्ञाता है, जिसकी वाणी सर्वदा आनन्द दायिनी मधुरा है । इसकी कीर्ति भद्रा अर्थात् मनोहारी है, इसकी वीरता विजय शौला है जिसकी लक्ष्मी दरिद्रों के लिये उपयोगिनी है, है सुलोचने ! तुम पूर्णा हो इसलिये इसकी वांछा को पूर्णा तिथि की भाँति पूर्ण करो ।
प्रकृत पद्य में नन्दा तिथि विशेष का भी नाम है, जिसमें प्रतिपद षष्टी, एकादशी तिथियाँ आती हैं। भद्रा में सप्तमी, द्वादशी तिथि आती है। ऐसे ही जया में तृतीया अष्टमी त्रयोदशी तिथियाँ आती हैं । रिक्ता में चतुर्थी, नवमी, चतुर्दशी तिथियाँ आती हैं। सुलोचना को पूर्णा संज्ञा कहा गया है। पूर्णा में किया हुआ कार्य परिपूर्ण होता है, जिसमें पंचमी, दशमी और पूर्णमासी तिथियाँ आती हैं। इस प्रकार तिथि संज्ञाओं का माध्यम लेकर ज्योतिष शास्त्र की ओर भी संकेत किया गया है ।
सप्तम सर्ग के निम्न श्लोक में सुलोचना के प्रत्याशी को धाविष्ट अर्ककीर्ति का वर्णन से ग्रस्त सूर्य के रूप में किया गया है । यथा
राहु
"अर्क एवं तमसावृतोऽधुना दर्शघस्र इह हेतुनाऽमुना । एत्यहो ग्रहणतां श्रियः प्रिय इत्यभूदपि शुचा सविक्रियः ॥ 12
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जिसका तात्पर्य है कि सूर्य ग्रहण अमावश्या तिथि में ही लगता है इसलिये 'दर्शघस्रतमसावृत्तो अर्क एव' ऐसा अर्क कीर्ति के लिये निर्देश किया गया है । यह जय कुमार ने सोचा कि इस मांगलिक वेला में तेजस्वी अर्ककीर्ति भी रोष रूप राहु से ग्रस्त होकर ग्रहण को प्राप्त हो रहा है जिससे चिन्ता वश जय कुमार में भी कुछ विकार उत्पन्न हो गया। अर्क शब्द - श्लिष्ट होने से सूर्य एवं अर्ककीर्ति दोनों अर्थों का बोधक है।
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- इसी प्रकार अन्य अनेक सर्गों में ज्योतिष शास्त्र विषयक विवेचन भी मिलते हैं । जैसे" इतोऽयमर्कः स च सौम्य एष शुक्रः समन्ताद्ध्वजवस्त्रवेशः । रक्तः स्म कौ जायत आयतस्तु गुरुर्भटानां विरवः समस्तु ॥ केतुः कबन्धोच्चलनैकहेतुस्तमो मृतानां मुखमण्डले तु । सोमो वरासिप्रसरः स ताभिः शनैश्चरोऽभूत्कटको घटाभिः ।। मितिर्यतः पंचदशत्वमाख्यन्नक्षत्रलोकोऽपि नवत्रिकाख्यः । क्वचित्परागो ग्रहणश्च कुत्र खगोलताऽभूत्समरे तु तत्र ॥ 13
जिसका अर्थ है कि जयकुमार एवं अर्ककीर्ति का वह रण स्थल खगोल की समता कर रहा था । खगोल में सूर्य, चन्द्र, बुध, शुक्र, मंगल वृहस्पति, केतु, राहु, शनिश्चर प्रकृति ग्रहादि एवं 27 नक्षत्र मण्डल भरा रहता है। यह रणभूमि भी श्लेष के माध्यम से इन सभी से भरी हुई दिखायी गयी है। अर्थात् अर्क (सूर्य, अर्ककीर्ति) एक ओर विद्यमान था दूसरी ओर सोम पुत्र बुद्धिमान् ( बुध ग्रह ) जयकुमार सन्नद्ध था । ध्वजाओं का वस्त्र श्वेत होने