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168/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन 5. अलङ्कारौचित्य : औचित्य विचार चर्चा के पन्द्रहवीं कारिका में क्षेमेन्द्र ने अलङ्कारौचित्य
का मनोरम चित्रण किया है । जिस प्रकार उन्नत पयोधर पर स्थित हार से मृगाक्षी सुन्दरी सुशोभित होती है । उसी प्रकार अर्थगत औचित्य से अनुस्युत अलंकार द्वारा सूक्ति सुशोभित होती है ।
जयोदय महाकाव्य में प्रत्येक सर्ग अलंकारौचित्य से पूर्ण है इसलिये सभी उदाहरण दिखाना यद्यपि सम्भव नहीं है, तथापि कतिपय उदाहरण दिये जाते हैं । जैसे
"जठरवन्हि धरं ह्य दरं वदत्यपि च तैजसमश्रुसुगक्ष्यदः । जनमुखे करकृत्कतमोऽधुना हृदयशुद्धिमुदेतु मुदे तुना ॥135
प्रस्तुत श्लोक में रमणीय अलङ्कारौचित्य है । अर्ककीर्ति और काशी नरेश महाराज अकम्पन वार्तालाप प्रसंग में अर्ककीर्ति को उत्साह प्रदान करने एवं मनोमालिन्य दूर करने के लिये कहते हैं कि मनुष्य जठराग्नि को धारण करने वाले स्थान को उदर कहते हैं । उदर का शाब्दिक अर्थ निकलता है - 'उदम् उदकं राति गृहणाति इति उदरम्' । यह नेत्र जो अस्त्र जल को छोड़ता है, उसे तेजस् कहते है भला जनवर्ग के मुख पर कौन ताला लगा सकता है । अर्थात् उनके मुख को कैसे रोका जा सकता है परन्तु मनुष्य को चाहिए कि अपने प्रसन्नता के लिये मन को शुद्द या सरल बनावें।
यहाँ अर्थान्तरन्यास का प्राधान्य अत्यन्त चित्ताकर्षक है अतः अलङ्कारौचित्य अपने रूप में पर्याप्त है । नीचे लिखे श्लोक में उपमालङ्कार का औचित्य अवलोकनीय है -
"अनुगम्य जयं धृतानतिः प्रतियाति स्प स मण्डलावधेः । अनिलं हि निजात्तटात्सरोवरभङ्गश्चटु लापतां गतः ॥136
जनवर्ग जयकुमार का मधुर आलाप द्वारा अनुगमन करता हुआ अपने देश की सीमा प्रान्त तक जाकर पुनः ठीक उसी प्रकार लौट आया, जिस प्रकार तालाब के जल की लहरें वायु का पीछा करके अपने तट से लौट आती है । इसमें महाकवि ने उपमा अलङ्कार के द्वारा अलङ्कारौचित्य की संघटना किया है । इसी प्रकार अनेकशः अवसरोचित विशेषताओं को अभिव्यक्त करने में पटु महाकवि का अलङ्कारौचित्य सहदय हृदय को अनायास ही आह्लादित कर देता है । 6. रसौचित्य : औचित्य विचार चर्चा नामक ग्रन्थ में रसौचित्य के निरूपण में सोलहवीं
कारिका से आरम्भ कर दूर तक विवेचना है । जिस प्रकार वसन्तऋतु अशोक वृक्ष को अंकुरित करता है, उसी प्रकार औचित्य से चमत्कृत रस सज्जनों के हृदय को अंकुरित करता है ।
जयोदय महाकाव्य में अंगरूप में प्राप्त सभी रसों का सम्यक निरूपण किया गया है तथापि शान्त रस का ही अङ्गी रूप से प्रतिपादन किया गया है । नवम सर्ग में जयकुमार