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166 / जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
" दुग्धीकृतेऽस्य मुग्धे यशसा निखिले जले मृषास्ति सता । पयसो द्विवाच्यताऽसौ हंसस्य च तद्विवेचकता ॥ "27 प्रकृत पद्य पदौचित्य के लिये अद्वितीय है तथा इस औचित्य के पोषक के रूप में अकेले ही पर्याप्त है ।
2. वाक्यौचित्य : वाक्यौचित्य के सम्बन्ध में आचार्य क्षेमेन्द्र ने कहा है कि औचित्य से रचित वाक्य काव्यालोचक विद्वत् जनों को निरन्तर उसी प्रकार अभीष्ट रहता है, जिस प्रकार दान के द्वारा सम्पत्ति की उदात्तता और दाक्षिण्यादि गुणों के द्वारा विद्या की उज्जवलता सज्जनों के लिये अभिमत होती है" ।
जयोदय महाकाव्य में वाक्यौचित्य अपना व्यापक स्थान रखता है । इस औचित्य के दो-तीन उदाहरणों पर दृष्टिपात करें
"त्रिभुवनपतिकुसुमायुधसेनायाः स्वामिनी त्वमथ चेयान् । भरताधिपबलनेता तस्मात्ते स्याज्जयः श्रेयान् 11 तवं चैष चकोरदृशो दृश्योऽवश्यं च कौमुदाप्तिमयः । सोमाङ्ग जो हि बाले सतां वतंसः कलानिलयः ॥ एतस्याखण्ड महोमयस्य वाले जयस्य बहुविभवः बलमण्डो भुजदण्डो बसुधाया मानदण्ड इव 112129
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उपर्युक्त उदाहरणों में स्वयंवर काल में जयकुमार का परिचय दिया गया है। त्रैलोक्यपति कामदेव के सेना की स्वामिनी जैसे तुम हो वैसे ही चक्रवर्ती भरत की सेना का नायक यह जयकुमार है इसलिये तुम्हारा इसके साथ सम्बन्ध श्रेयस्कर है ।
हे बाले ! सोमकुलोत्पन्न यह कुमार कलाओं का घर सज्जनों का भूषण एवं चन्द्र प्रकाशमय है तथा तुम जैसे चकोर नेत्री के लिये अवश्य दर्शनीय है ।
इसका भुजदण्ड बहुविभव बल- मण्डित एवं पृथ्वी को नापने के लिये मानदण्ड सरीखा है, इसलिये तुम्हारे साथ सम्बन्ध हो जाना सर्वथा समुचित होगा। इसमें जयकुमार के परिचयात्मक वर्णन किये गये हैं, जो वाक्यौचित्य का परिचायक है ।
3. विषयौचित्यः जयोदय महाकाव्य इस औचित्य से भरा पड़ा है। जयकुमार के शासन काल में कोई व्यक्ति वस्त्रहीन नहीं हुआ, खाने पीने की सामग्री इतनी पर्याप्त थी कि उपवास करने की स्थिति नहीं आयी, अतएव चित्त में चिन्ता का कभी निवास नहीं हुआ । संसार में ऐहिक सुख की पूर्ण प्राप्ति हुई । संसार से तथा सांसारिक दुःख से मनुष्य मुक्त रहे, यह विलक्षण चरणानुयोग है। जैन धर्मानुसार दिगम्बर होने, उपवास करने आत्मचिन्तन तथा भोगों के त्याग से मुक्ति होती है। यह सदाचार प्रतिपादक ग्रन्थ