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164/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
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रस निष्पत्ति में औचित्य ही मुख्य कारण है । यह तत्त्व आनन्दवर्धनाचार्य ने मुक्तकण्ठ व्यक्त किया है।
इसी प्रकार सरस्वतीकण्ठाभरण तथा शृङ्गार प्रकाश ग्रन्थ निर्माता भोजराज ने भी विरुद्ध नामक दोष को अनौचित्य के ऊपर ही अवलम्बित किया है । देश विरोध, काल विरोध, लोक विरोध, अनुमान विरोध औचित्य विरुद्ध के अन्तर्गत ही है 14 ।
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वक्रोक्तिजीवित निर्माता कुन्तक भी औचित्य का चमत्कार व्यक्त करते हैं । यज्ञादि में म्लेच्छ भाषाओं का प्रयोग स्त्रियों के साथ प्राकृत छोड़कर अन्य भाषाओं में भाषण, सत्कुलोत्पन्न के प्रति संकीर्ण भाषा का प्रयोग अप्रबुद्ध जनों के प्रति संस्कृत शब्दों का प्रयोग स्वभाव के विरुद्ध माना गया है । इसके अनुसार रीति तीन प्रकार की है - सुकुमार, विचित्र एवं मध्यम। इन तीनों रीतियों (मार्गों) में समान रूप से रहने वाले गुण औचित्य और सौभाग्य हैं 5 | इस प्रकार कुन्तक ने औचित्य को सबसे व्यापक काव्य तत्त्व माना है । वर्ण विन्यास वक्रता के विवेचनावसर में वक्रतापूर्ण वर्ण योजना अनिवार्य रूप से होनी चाहिए, जिससे प्रस्तुत औचित्य सुशोभित होता है" । जहाँ वक्ता या श्रोता के अत्यन्त रमणीय स्वभाव के द्वारा अभिध्ये वस्तु सर्वथा आच्छादित कर दी जाती है, वहाँ दूसरे प्रकार का औचित्य होता है” ।
औचित्य के विषय में व्यक्ति विवेककार महिमभट्ट भी आनन्दवर्धन के अनुयायी हैं। अनौचित्य को महिमभट्ट भी प्रधान दोष के रूप में स्वीकार करते हैं 8 । विदग्ध मण्डल मण्डित आचार्य क्षेमेन्द्र का औचित्य तत्त्व सबसे अधिक महत्त्व रखता है । उनकी अमर कीर्ति
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'औचित्य विचार चर्चा' है ।
दशरूपककार ने भी कहा है कि सम्पूर्ण वस्तु का दो भाग करना चाहिए कुछ तो सूच्य होना चाहिए जो दृश्य अथवा श्रव्य हो । नीरस वस्तु अनुचित रूप में प्रतीत होता है, इसलिये संशूच्य रूप में ही वस्तु का विस्तार करना चाहिए । दृश्य वस्तु मधुर उदात्त रसभाव समन्वित होना चाहिए"।
औचित्य विचार में क्षेमेन्द्र ने कहा है कि उचित व्यापार को ही औचित्य कहते हैं । औचित्य के अनन्त भेद कहे जा सकते हैं । काव्य के प्रत्येक अङ्ग एवं उपाङ्ग औचित्य के व्यापक प्रभाव से भरे रहते हैं ।
क्षेमेन्द्र का कथन है कि उचित स्थान में विन्यास से अलङ्कार - अलङ्कार होता है एवं गुण-गुण होते हैं । यदि उसके स्थान में उनका विन्यास सन्निवेश न हो तो वह अलङ्कारअलङ्कार नहीं एवं गुण-गुण नहीं हो सकता" । वह अनौचित्य का रूप ही धारण करेगा जैसे कण्ठ में मेखला नितम्ब प्रदेश में मुक्ताहार, हाथ में नूपुर, चरण में अङ्ग धारण करने तथा प्रणत पर पराक्रम और शत्रु पर कृपा करने से कौन उपहास का पात्र नहीं बनता " ? यह औचित्य विरुद्ध होने से उपहास का ही स्थान प्राप्त करेगा । औचित्य विचार प्रसङ्ग में क्षेमेन्द्र