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| जयोदय महाकाव्य में औचित्य एवं कतिपय दोष
जयोदय महाकाव्य में औचित्य :
अनौचित्य के त्याग से औचित्य का ज्ञान स्वतः सिद्ध हो जाता है, जिस प्रकार घट के ज्ञाता व्यक्ति को घटाभाव का ज्ञान स्वतः सिद्ध हो जाता है । जयोदय में औचित्य विमर्श के पहले उसके सम्बन्ध में आचार्यों के तत्सम्बन्धी कथन को अभिव्यक्त कर देना असंगत नहीं होगा । अपितु संगति का साधन ही है । इसलिये उनके उपदिष्ट सिद्धान्त को कतिपय शब्दों से व्यक्त किया जा रहा है ।
संस्कृत साहित्य में औचित्य पर सर्वप्रथम विचार नाट्यशास्त्र प्रणेता भरत मुनि ने ही व्यक्त किया है । यद्यपि उनके ग्रन्थ में विशेष विवेचन नाट्यशास्त्र सम्बन्धी हैं तथापि वहाँ नाट्य के अङ्गों तथा सभी कमनीय कलाओं का भी प्रदर्शन किया गया है । उनका कथन है कि सांसारिक व्यक्ति एक प्रकृति, एक चरित्र, एक चित्त एक अवस्था के नहीं होते हैं। अपितु धार्मिक, अधार्मिक, सदाचारी, दुराचारी, कृतज्ञ, कृतघ्न विविध प्रकार के होते हैं । उनकी विविध अवस्थाओं के चित्रण से युक्त लोक वृत्त का अनुकरण ही नाट्य कहलाता
__अवस्थाओं की अनुरूपता इस प्रकार होनी चाहिए कि अवस्था के अनुसार वेश, वेश के अनुसार गति तथा क्रिया गतिशीलता के अनुरूप पाठ्य तथा पाठ्य के अनुरूप अभिनय करना चाहिए । इसके विरुद्ध करने से अनौचित्य माना गया है ।
देश के प्रतिकूल वेश धारण करने से शोभा नहीं होती है । मेखला को कण्ठ में धारण किया जाय तथा नुपुर को हाथ में धारण किया जाय तो इससे शोभा न बढ़कर उपहास ही होता है । इस प्रकार भरत के कथन से औचित्य का आविर्भाव अवश्य हो जाता है । भरत के ही सूत्र को आधार बनाकर परवर्ती आचार्यों ने औचित्य तत्त्व की विस्तृत व्याख्या की है।
आचार्य भरतमुनि के अनन्तर अलंकारिकों में प्रथम नाम भामह का गणनीय है । उनके अनुसार कहीं-कहीं अनौचित्य रूप से प्रतीत दोष भी यदि परिहार के योग्य हों तो वे दोष न होकर गुण बन जाते हैं।
"सन्निवेशविशेषात्तु दुरुक तमपिशोभते ।
नीलं पलाशमाबद्धमन्त रात्ने स्रजामिव ॥4 - तात्पर्य यह है कि दोष भी कहीं-कहीं गुण रूप में होकर शोभा धायक बन जाते हैं, जिस प्रकार काला कज्जल भी कामिनी नयन में शोभावर्धक हो ही जाता है ।