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126/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन
जिसमें जयकुमार के काशी नगरी से विदाई के प्रसङ्ग में कहा गया है कि वह सम्पूर्ण काशी नगरी प्रस्थान कालिक भेरी के शब्द के ब्याज से जयकुमार भावी वियोग की आशंका से मानो दुःखित हो, शीघ्र ही क्षोभ को प्राप्त हुए। __इस पद्य में नगरी जो जड़ है, उसमें दुःखी होने की सम्भावना की वाच्योत्प्रेक्षा व्यक्त किया गया है तथा “भवतो-भवतो" पद की आवृत्ति होने से लाटानुप्रास व्यक्त है क्योंकि लाटानुप्रास पदान्त और अपदान्त में भी होता है । इनकी परस्पर निरपेक्षता होने से संसृष्टि अलङ्कार है।
शब्दालङ्कार अलङ्कार विवेचन में मैंने कहीं भी क्रम को ध्यान में नहीं रखा है। मम्मट आदि कतिपय आचार्य भी ऐसा ही करते हैं । अतः अर्थालङ्कार के अनन्तर कतिपय शब्दालंकार पर दृष्टिपात करना असमीचीन नहीं होगा। 36. अनुप्रास : अनुप्रास अलङ्कार इस महाकाव्य में सर्वत्र व्याप्त है तथापि उसकी यहाँ उत्कृष्टता
है ऐसे स्थान भी कम नहीं हैं । जहाँ स्वर की विषमता रहने पर भी व्यंजन वर्ण की समता हो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है । अनुप्रास शब्द का अक्षरार्थ है कि 'अनु' रसों के अनुकूल 'प्र' प्रकृष्ट रूप से वर्णो के आस न्यास (रचना) को अनुप्रास कहते हैं । यदि रस के विपरीत वर्णों का चयन हो जाय तो वहाँ अनुप्रास अलङ्कार मान्य नहीं होगा । इसीलिये साहित्यदर्पण के सप्तम परिच्छेद में वाक्य दोषनिरूपणावसर पर 'वर्णानां प्रतिकूलत्वम्' कहकर वाक्य दोष बतलाया गया है । यह छेकानुप्रास, वृत्यनुप्रास, श्रुत्यनुप्रास, अन्त्यानुप्रास, लाटानुप्रास के भेद से पाँच प्रकार का होता है। (क) छेकानुप्रास : व्यंजनों के समुदाय की एक ही बार अनेक प्रकार की समानता
होने को 'छेकानुप्रास' कहते हैं।52 । यहाँ अनेक प्रकार की समानता से यह अभिप्राय
है कि स्वरूप से भी समानता होनी चाहिए और क्रम से भी । उदाहरण - "उपांशुपांसुले व्योम्नि ढक्काढक्कारपूरिते । बलाहक बलाधानान्मयूरा मदमाययुः
इसमें स्वयंवर हेतु ससैन्य जयकुमार का प्रस्थान वर्णन किया गया है । उस समय भेरी के प्रचण्ड ध्वनि से एवं सैन्य से उठी हुई धूलि से आकाश भर गया, जिससे मयूरों में मेघ गर्जन के भ्रम से मद उत्पन्न हो गया । यद्यपि यहाँ भ्रान्ति अलङ्कार भी है । परन्तु 'प', 'प', 'ढ', 'ढ', 'ब' 'ब', 'य' 'य' की आवृत्ति होने से छेकानुप्रास है। (ख) वृत्यनुप्रास : अनेक व्यंजनों का एक बार (केवल स्वरूप) से ही, क्रम से नहीं)
या बहुत बार का (स्वरूप और क्रम दोनों से) अथवा एक ही वर्ण का एक बार या अनेक बार आवृत्ति साम्य होने पर 'वृत्यनुप्रास' होता है । जैसे :
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