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________________ चतुर्थ अध्याय / 77 सुराजां राजते वंश्यः स्वयं माञ्चक मूर्धनि मन्त्रियों द्वारा समझाये जाने के अनन्तर अर्ककीर्ति इस प्रकार बोला कि हे मंत्रिन् । सुनो, क्षमाशील होना, त्यागी ( संन्यासियों) का काम है, क्षत्रियों का पुत्र तो अपने बल द्वारा सिंहासन के शिषर पर आरूढ़ होता है । 1 इस पद्य में मन में विराजमान जयकुमार विभाव है । सुलोचना द्वारा माल्यार्पण उद्दीपन है । सहनशीलता का अभाव व्यक्त करना अनुभाव है अर्थात् प्रतिकार के लिये प्रवृत्त होना अनुभाव है इर्ष्या आदि संचारी भाव है । जयकुमार विषयक अर्ककीर्ति में व्यंजना से बोध्य क्रोध स्थायीभाव है । इसके अतिरिक्त यहाँ 'क्ष', 'त्र', 'ष्य' आदि वर्णों का विन्यास ओजोगुण को निष्पन्न करता है जो रौद्र का पोषक है । 1 इसी प्रकार अन्य स्थलों में भी इस रस की छटा दर्शनीय है । यथा "विनयो नयवत्येवाऽतिनये तु गुरावपि प्रमापणं जनः पश्येन्नीतिरे वगुरुः सताम् स्वयंवरं वरं वर्त्म जाने नानेन मे ग्रहः किन्तु मन्तुमिदं ग्राह्यतया कारितवान् कुधीः अर्थात् विनयशील होना नीतिज्ञों की बात है नीति त्याग कर चलने वाला गुरु भी (महान् भी) पूज्य ही क्यों न हो । परन्तु स्वाभिमानी व्यक्ति उसके मृत्यु को ही देखता है क्योंकि नीति ही सबकी गुरु है I 1146 1 11 1 - 147 स्वयंवर समीचीन मार्ग है मैं यह समझता हूँ इससे मेरा कोई विरोध नहीं किन्तु यह स्वयंवर नहीं हुआ है यह तो दुर्बुद्धि अकम्पन ने अपने दुराग्रह से इस वर का वरण कराया है । उपर्युक्त कथनों में सुलोचना के द्वारा जयकुमार को माल्यार्पण आलम्बन विभाव है तथा सुलोचना के साथ जयकुमार का निर्णित सम्बन्ध उद्दीपन विभाव है । पूज्य का अनादर अनुभाव है । ईर्ष्या व्यभिचारी भाव है एवं क्रोध स्थायी भाव होने से रौद्र रस निष्पन्न है। इसी प्रकार आगे भी वही कहता है कि जयकुमार साधारण राजाओं को जीतकर भी क्या वास्तविक विजयी हो सकता है । हाथी यद्यपि अन्य पशुओं से बड़ा है तथापि क्या ह सिंह शावक की तुलना में आ सकता है । इस आशय की झलक अनुपमेय है। "साधारणधराधीशाञ् जित्वाऽपि स जयः कुतः । द्विपेन्द्रो नु मृगेन्द्रस्य तुलनामियात् ।। 148 सुतेन इसी प्रकार आगे भी कथन है कि मुझे सुलोचना से कोई प्रयोजन नहीं फिर भी
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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