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उ. - जैन लोग जैन देवी देवताओं के सिवाय किसी अन्य देव देवियों की मान्यता व पूजा नहीं करते थे । विक्रम सं. 1784 तक मारवाड़ के तमाम जैनों का एक ही मूर्ति मानने का धर्म था वहां तक जैन अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग थे बाद मूर्ति मानने नहीं मानने का भेद पड़ा। कई अज्ञ लोगों ने जैन मंदिरों को छोड़ा तो उस हालत में वे अन्य देव देवियों को जाकर सिर झुकाने लगे । जाति व्यवहार एक (शामिल) होने से मूर्ति मानने वालों की लड़कियां, मूर्ति नहीं मानने वालों को ब्याही और मूर्ति नहीं मानने वालों की बेटियां मानने वालों को दी। इस हालत में जैनियों के घरों में आई हुई स्थानकवासियों की बेटियां अपने पीहर के संस्कारों के कारण अन्य देव देवियों को मानने लगीं इससे यह प्रवृत्ति उभय पक्ष में चल पड़ी। तथापि जो पक्के जैन हैं वे तो आज भी अपनी प्रतिज्ञा पर डटे हुये हैं जो अपवाद है वह भी स्थानकवासियों की प्रवृत्ति का ही फल है। तेरहपन्थी तो इन से भी नीचे गिरे हुए हैं।
प्र. - हमारे कई साधु तो कहते हैं कि मूर्ति नहीं मानना लोंकाशाह से चला है। तब कई कहते हैं कि हम तो महावीर की वंश परम्परा से चले आते हैं। इसके विषय में आपकी क्या मान्यता है ?
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जैन मूर्ति नहीं मानना यह लोकाशाह से चला यह वास्तव ठीक है ही । इस मान्यता का हाल ही में स्था. मुनि शोभागचन्दजी ने जैन प्रकाश पत्र में - "घर्मप्राण लोकाशाह" नाम की लेखमाला में भली भांति सिद्ध कर दिया है- कि भगवान महावीर के बाद 2000 वर्षों से जैन मूर्ति नहीं मानने वाला सबसे पहले लोकाशाह ही हुआ । पर जो लोग कहते हैं कि हम महावीर की वंश परम्परा से चले आते हैं और कल्पित नामों की पट्टावलियां भी बनाई हैं, पर वे इस ऐतिहासिक युग में सब मिथ्या ठहरती हैं कारण महावीर बाद 200 वर्षो में केवली चतुर्दश पूर्वधर और श्रुतकेवली सैंकड़ों धर्म धुरंधर महान प्रभाविक आचार्य हुए वे सब मूर्ति उपासक ही थे यदि उनके समय में मूर्ति नहीं मानने वाले होते तो वे मूर्ति का विरोध करते । पर ऐसे साहित्य की गन्ध तक भी नहीं पाई जाती। जैसे दिगम्बर श्वेताम्बर से अलग हुए तो उसी समय उनके खण्डन-मण्डन के ग्रन्थ बन गये, पर
पूर्वाग्रह व ईर्ष्या की आग अन्य के गुण देख ही नहीं सकती इससे बचें। (19
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