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________________ क्या रहस्य है? जो कारण तुम्हारे यहां है वही हमारे भी समझलीजिये।मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा होने से उसमें दैवी गुणों का प्रादुर्भाव होता है। __प्र. - पाषाण मूर्ति तो एकेन्द्रिय होती है। उसकी पंचेन्द्रिय मनुष्य पूजन करके क्या लाभ उठा सकते हैं। • उ. - ऐसा कोई मनुष्य नहीं है कि वह पत्थर की उपासना करता हो कि हे पाषाण! मुझे संसार सागर से पार लगाईए, किन्तु वे तो मूर्ति में प्रभु गुण का आरोपण कर एकाग्रचित से उसी प्रभु की उपासना व प्रार्थना करते हैं। नमोत्थुणं कह कर परमात्मा के गुणों का ध्यान में स्मरण करते हैं। पर सूत्रों के पृष्ठ भी जड़ हैं, आप उन जड़ पदार्थ से भी ज्ञान हासिल कर सकते हैं, यह स्वतः समझ लीजिये। . . प्र.- मंदिर तो बारहवर्षी दुष्काल में बने हैं, अतः यह प्रवृत्ति नई है। उ - बारह वर्षी दुष्काल कब पड़ा था, आप को यह मालूम है? प्र. - सुना जाता है कि 1000 वर्ष पहिले बारह वर्षी काल पड़ा था। उ. - सुना हुआ ही कहते हो या स्वयं शोधखोज करके कहते हो, महरबान! जरा सुनें और सोचें, पहला बारहवर्षी कालचतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाहु स्वामी के समय पड़ा था, जिसे आज 2300 वर्ष के करीब होते हैं। और दूसरा बारहवर्षी काल दशपूर्वधर वज्र स्वामी के समय में पड़ा था, उसे करीब 1900 वर्ष होते हैं। आपके मताऽनुसार बारहवर्षी दुष्काल में ही मंदिर बना यह मान लिया जाय तो पूर्वधर श्रुत केवलियों के शासन में मंदिर बना और उसका अनुकरण 2300 वर्ष तक धर्मधुरंधर आचार्यों ने किया और करते हैं। तो फिर लोकाशाह को कितना ज्ञान था कि उन्होंने मंदिर का खण्डन किया और उन पूर्व आचार्यो को अज्ञानी मान लिया। मन्दिरों की प्राचीनता सूत्रों म तो हैं ही, पर आज इतिहास के अन्वेषण से मन्दिरों के अस्तित्व को महावीर के समय में विद्यमान बताते हैं । देखिये (1) उड़ीसा प्रांत की हस्तीगुफा का शिलालेख, जिसमें महामेय वाहन चक्रवर्ती, राजा खारवेल, जिसने-अपने पूर्वजों के समय मगध के राजा नन्द ऋषभदेव की जो मूर्ति ले गये थे उसे वापिस ला आचार्य हस्ति सूरि से मेरा ही सच्चा यहाँ मान अहंकार का पोषण व उन्माद है। जबकि होना यह चाहिए(13
SR No.006167
Book TitleJain Dharm Me Prabhu Darshan Pujan Mandirki Manyata Thi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyansundarmuni
PublisherJain S M Sangh Malwad
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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