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________________ समानता : सभी मनुष्य समान हैं। कोई भी जाति अन्य जातियों से ऊंची नहीं है। कोई भी वर्ण अन्य वर्गों से ऊंचा नहीं है। कोई भी रंग अन्य रंग से ऊंचा नहीं है। जाति, वर्ण, रंग, लिंग के आधार पर किए जाने वाले सारे के सारे भेद मनुष्यकृत हैं। किसी को भी अपने से हीन मत समझो। सत्य की सापेक्षता और सह-अस्तित्व : सत्य अनेकान्तात्मक है-बहुपक्षी है। एक कथन किसी एक दृष्टि से सत्य है, तो उससे विपरीत कथन भी किसी अन्य दृष्टि से सत्य होता है। इसलिए दो परस्पर-विरोधी दृष्टिकोणों के बीच भी सामंजस्य की स्थापना का द्वार सदा खुला है। ऐकान्तिकदृष्टि को त्याग कर सभी के साथ शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व बनाए रखो। आत्म-स्वातंत्र्य : तुम अपने भाग्य के निर्माता स्वयं हो। तुम अनन्त शक्ति के स्रोत हो। अपने सभी कर्मों तथा उनके फलों के उत्तरदायी तुम स्वयं हो। अपने पुरुषार्थ के द्वारा अपने-आप को बन्धनों से मुक्त करो। आत्मवाद : आत्मा एक वास्तविकता है। उसका अस्तित्व शरीर से भिन्न है। अनादि काल से प्रत्येक आत्मा जन्म-मृत्यु के आवर्त में चक्कर लगा रही है। संसार-चक्र आत्मा के लिए दुःखमय है। जो आत्मा जन्म-मृत्यु रूपी संसार-चक्र से मुक्त हो जाती है, वह हमेशा के लिए सारे दुःखों को पार कर जाती है। कषाय-मुक्ति : कषाय (राग और द्वेष) आत्मा के साथ कर्म-पुदगलों के बन्ध का मूल हेतु है। ये कर्म-पुद्गल बहुत ही सूक्ष्म भौतिक पदार्थ रूप हैं। यह बन्ध ही आत्मा के दुःख का कारण है। क्रोध, मान, माया और लोभ-ये चार कषाय हैं। इन वृत्तियों से विमुक्त होने वाला जीव, मोक्ष अर्थात् परमानन्द की स्थिति को प्राप्त कर लेता है। साधना-मार्गः (१) सम्यग् ज्ञान-आत्म-तत्त्व का यथार्थ बोध । (२) सम्यग् दर्शन-आत्मवाद के प्रति श्रद्धा। (३) सम्यक् चारित्र-संयम-साधना अर्थात्(क) कषाय-जनित सम्पूर्ण प्रवृत्तियों का परित्याग। हिंसा, असत्य, अप्रामाणिकता, अब्रह्मचर्य और परिग्रह-आसक्ति-इन पांचों दुष्कर्मों का त्याग। (ख) संयम के पालन में सतत् जागरूकता। (ग) सभी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में सम्पूर्ण समता। (घ) सम्यक् तप-ध्यान, स्वाध्याय, उपवास आदि शुभ प्रवृत्तियों द्वारा आत्मशुद्धि। वर्तमान युग में सार्थकता उक्त धर्म-सिद्धान्तों का प्रचार करते हुए भगवान महावीर ने जिन प्रवृत्तियों के विरोध में आवाज उठाई, वे हैं-यज्ञ-याग में होने वाले प्राणी-वध, दास-प्रथा, जातिवाद, स्त्रियों को धर्म-साधना से वंचित रखना।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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