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________________ महावीर वाणी जो पुरुष धीर और वैराग्यपरायण है वह थोड़ा पढ़ा हो तो भी सिद्धि से युक्त होता है ।। सब शास्त्रों को पढ़ लेने पर भी जो वैराग्यहीन है उस पुरुष की सिद्धि नहीं होती । ४० ६. थोवह्मि सिक्खिदे जिणइ बहुसुदं जो चरित्तसंपुण्णो । जो पुण चरित्तहीणो किं तस्स सुदेण बहुएण ।। ( मूल० ६ : ६) जो चारित्र से सम्पूर्ण होता है वह थोड़ा-सा पढ़ा होने पर भी बहुश्रुत को जीत लेता है। जो चारित्र से हीन है उसके बहुत शास्त्र पढ़ लेने से भी क्या लाभ ? १०. णाणं करणविहीणं लिंगग्गहणं च संजमविहीणं । दंसणरहिदो व तवो जो कुणइ णिरत्थयं कुणइ ।। जो पुरुष क्रियारहित ज्ञान, संयमरहित साधु-वेष, सम्यक्त्वरहित तप को धारण करता है वह उन्हें निरर्थक ही धारण करता है। ११. सम्मत्तादो णाणं णाणादो सव्वभावउवलद्धी । उवलद्वपयत्थो पुण सेयासेयं वियाणादि । । १२. बाहिरजोगा सव्वे मूलविहूणस्स किं करिस्संति । ( मूल० १० : ६ ) (मूल० १० : सम्यक्त्व से ज्ञान- सम्यग्ज्ञान होता है, ज्ञान से सब पदार्थों के स्वरूप की पहचान होती है और जिसने पदार्थों का स्वरूप अच्छी तरह जान लिया है वही हित और अहित को जानता है । मूलगुणरहित पुरुष के सब बाह्य योग क्या कर सकते हैं ? १३. घोडयलद्दिसमाणस्स बाहिर बगणिहुदकरणचरणस्स । अब्भंतरमि कुहिदस्स तस्स दु कि बज्झजोगेहिं । । १२) (मूल० १० : २६ ग, घ ) १४. भावविरदो दु विरदो ण दव्वविरदस्स सुग्गई होई । विसयवणरमणलोलो धरियव्वो तेण मणहत्थी । । (मू० ६६४) बाह्य में बगुले के समान निश्चल हाथ-पाँव वाले और घोड़े की लीद के सामान चिकने और अभ्यंतर में कुत्सित साधक के बाह्य योगों से क्या लाभ ? (मू० ६६५) जो भाव - अंतरंग में विरक्त है, वास्तव में वही विरक्त है। केवल बाह्य विरक्त की सुगति नहीं होती। इसलिए विषय-वन में क्रीड़ालंपट मनरूपी हाथी को रोकना चाहिए।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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