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________________ महावीर वाणी ७. इय उवएसं सारं जरमरणहरं खु मण्णए जंतु। ____तं सम्मत्तं भणियं समणाणं सावयाणं पि।। (मो० पा० ४०) सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र का यह उपदेश ही सारभूत है, यही जरा और मरणादि का हरने वाला है, जो ऐसा मानता है उसे ही सम्यग्दर्शन की उपलब्धि कही है। यह सम्यग्दर्शन मुनि और श्रावक दोनों के लिए है। ८. जीवाजीवविहत्ती जोई जाणेइ जिणवरमएणं। ___ तं सण्णाणं भणियं अवियत्थं सव्वदरसीहिं।। (मो० पा० ४१) जिनवर भगवान के द्वारा बतलाए हुए मार्ग के अनुसार जो योगी जीव और अजीव को जानता है, उसे सर्वदर्शी परमात्मा ने यथार्थ सम्यग्ज्ञान कहा है। ६. जं जाणिऊण जोई परिहारं कुणइ पुण्णपावाणं । तं चारित्तं भणियं अवियप्पं कम्मरहिएण।। (मो० पा० ४२) उस जीव और अजीव के भेद को जानकर जो योगी पुण्य और पाप का त्याग करता है, उसे कर्मों से रहित जिनेन्द्र देव ने निर्विकल्प चारित्र कहा है। १०. जो रयणत्तयजुत्तो कुणइ तवं संजदो ससत्तीए।। सो, पावइ परमपयं झायंतो अप्पयं सुद्धं ।। (मो० पा० ४३) जो संयमी रत्नत्रय से युक्त होता हुआ अपनी शक्तिपूर्वक तप करता है वह शुद्ध आत्मा का ध्यान करता हुआ परमपद-मोक्ष को प्राप्त करता है। ५. समायोग १. णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संजमगणेण। चउहि पि समाजोगे मोक्खो जिणसासणे दिट्ठो।। (द० पा० ३०) ज्ञान, दर्शन, तप और चारित्ररूपी संयम गुण से अर्थात इन चारों के समायोग से जिन-शासन में मोक्ष कहा गया है। २. तवरहियं जं णाणं णाणविजुत्तो तवो वि अकयत्थो। तम्हा णाणतवेणं संजुत्तो लहइ णिव्वाणं ।। (मो० पा० ५६) तपरहित ज्ञान व्यर्थ है और ज्ञानरहित तप भी व्यर्थ है। अतः ज्ञान और तप से संयुक्त मनुष्य ही निर्वाण को प्राप्त करता है।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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