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________________ ४. दुर्लभ संयोग ३७ ४. त्रिरत्न १. रयणत्तयमाराहं जीवो आराहओ मुणेयव्यो। आराहणाविहाणं तस्स फलं केवलं णाणं ।। (मो० पा० ३४) रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र आराध्य है, जीव आराधक है, अनुष्ठान आराधना है। आराधना करने का फल केवलज्ञान की प्राप्ति है। २. सिद्धे सुद्धो आदा सव्वण्हू सव्वलोयदरसी य। सो जिणपरेहिं भणिओ जाण तुमं केवलं गाणं ।। (मो० पा० ३५) जिनवर भगवान ने सिद्ध पद को प्राप्त शुद्ध आत्मा को सर्वज्ञ और सर्वलोकदर्शी कहा है, उसे ही तुम केवलज्ञान जानो । (केवलज्ञान आत्मरूप है। उसकी प्राप्ति शुद्धात्मा की प्राप्ति है।) ३. रयणत्तयं पि जोइ आराहइ जो हु जिणवरमएण। सो झायदि अप्पाणं पिरहरदि परं ण संदेहो।। (मो० पा ३६) जो योगी जिनवर भगवान के द्वारा बताए हुए मार्ग के अनुसार रत्नत्रय की आराधना करता है, वह आत्मा का ध्यान करता है और परवस्तु का त्याग करता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। ४. जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं णेयं । तं चारित्तं भणियं परिहारो पुण्णपावाणं ।। (मो० पा० ३७) जो जानना है वह ज्ञान है, जो देखना है (श्रद्धा करना है) वह दर्शन है और जो पुण्य और पाप का परित्याग है वह चारित्र है। ५. तच्चरुई सम्मत्तं तच्चग्गहणं च हवइ सण्णाणं । चारित्तं परिहारो पयंपियं जिणवरिंदेहिं।। (मो० पा० ३८) तत्त्वों में रुचि होने का नाम सम्यग्दर्शन है। तत्त्वों के स्वरूप को ठीक-ठीक ग्रहण करना सम्यग्ज्ञान है। कर्मों को लाने वाली क्रियाओं को त्यागना सम्यकचारित्र है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। ६. दंसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं । दसणविहीणपुरिसो न लहइ तं इच्छियं लाहं।। (मो० पा० ३६) जो दर्शन से शुद्ध है वह शुद्ध है। जो दर्शन से शुद्ध है वह निर्वाण को प्राप्त करता है। जो पुरुष सम्यग्दर्शन से रहित है वह ईप्सित लाभ-मोक्ष को प्राप्त नही कर सकता।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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