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________________ ३६. श्रमण-शिक्षा ३२५ मुनि आहार के मिलने पर प्रसन्न नहीं होते और न मिलने पर मलिन-चित्त नहीं होते। दुःख और सुख में मुनि मध्यस्थ और अनाकुल होते हैं। ६. किं काहदि वणवासो कायंकलेसो विचित्तउववसो। अज्झयमौणपहुदी समदारहियस्स समणस्स ।। (नि० सा० १२४) जो श्रमण समतारहित है, उसके वनवास, काय, क्लेश, विविध उपवास, अध्ययन, मौन आदि से क्या लाभ? ७. ण तस्स जाति व कुलं व ताणं १. जे यावि अप्पं वसमं ति मंता संखाय वायं अपरिच्छ कज्जा। तवेण वाहं अहिए ति मता अण्णं जणं पस्सति बिंबभूतं ।। एगंतकूडेण तु से पलेइ ण विज मोणपदंसि गोते। जे माणणद्वेण विउक्कसेज्जा वसुमण्णतरेण ।। (सू० १, १३ : ८-६) अपने को संयमी समझकर परमार्थ की परख न होने पर भी जो अपने को ज्ञानी मानता हुआ बड़ाई करता है और मैं तो तप से अधिक हूँ, ऐसा गुमान करता हुआ दूसरे को परछाई की नाँई देखता है, वह कर्म-पाश में जकड़ा जाकर-जन्म-मरण के एकान्त दुःखपूर्ण चक्र में घूमता है। ऐसा पुरुष संयमरूपी सर्वज्ञ मान्य गोत्र में अधिष्ठित नहीं होता । जो मान का भूखा अपनी बड़ाई करता है और संयमधारण करने पर भी अभिमानी होता है, वह परमार्थ को नहीं समझता। २. जे माहणे खत्तिए जाइए वा तहुग्गपुत्ते तह लेच्छवी वा। जे पव्वइए खत्तिए परदत्तभोई गोतेण जे थमति माणबद्धे ।। ण तस्स जाती व कुलं व ताणं णण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिण्णं। णिक्खम्म से सेवइऽगारिकम्मे ण से पारए होति विमोयणाए ।। (सू० १, १३ : १०-११) ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्रपुत्र व लेच्छवी कोई भी हो जिसने घरवार छोड़ प्रव्रज्या ले ली है और दूसरे के दिये हुए भोजन पर ही जीवन चलाता है, ऐसे गोत्राभिमानी को उसकी जाति व कुल शरणभूत-रक्षाभूत नहीं हो सकते। सुआचरति विद्या और चरण-धर्म के सिवा अन्य वस्तु नहीं, जो उसकी रक्षा कर सके। जो घरबार से निकल चुकने पर भी गृही-कर्मों का सेवन करता है, वह कर्म-मुक्त होकर संसार के पार नहीं पहुँचता।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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