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१. अनुत्तर मंगल
४. पंच परमेष्ठी-भक्ति १. ते अरिहंता सिद्धाऽऽयरिओवज्झायसाहवो नेया।
जे गुणमयभावाओ गुणा व पुज्जा गुणत्थीणं ।। (वि० आव० भा० २६४२)
अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-ये ज्ञानादि गुण सहित हैं। अतएव गुणाभिलाषी भव्यात्माओं के लिए ये मूर्तिमान गुणों की तरह पूज्य हैं। २. संवेगजणिदकरणा णिस्सल्ला मंदरोव्व णिक्कंपा।
जस्स दढा जिणभत्ती तस्स भवं णत्थि संसारे।। (भग० आ० ७४५)
जिसकी जिन-भक्ति संवेग (संसार-भय) से उत्पन्न, माया, मिथ्यात्व और निदान (फल पाने की कामना)-इन तीन प्रकार के शल्यों से रहित और सुमेरु पर्वत की तरह निष्कंप है, उसको संसार में भय नहीं है। ३. एया वि सा समत्था जिणभत्ती दुग्गइं णिवारेउं। पुण्णाणि य पूरेदं आसिद्धिपरंपरसुहाणं ।। (भग० आ० ७४६)
अकेली ही वह जिन-भक्ति दुर्गति के निवारण करने में समर्थ है। वह प्रचुर पुण्य को उत्पन्न करती है और मुक्ति की प्राप्ति तक सुखों का कारण बनी रहती है। ४. विज्जा वि भत्तिवंतस्स सिद्धिमुवयादि होदि सफला य। किह पुण णिव्वुदिबीजं सिज्झहिदि अभत्तिमंतस्स ।।
(भग० आ० ७४८) विद्या भी भक्ति-सम्पन्न के ही सिद्ध होती है और फल देती है, फिर भक्तिरहित मनुष्य के निर्वाण के बीजरूप ज्ञानादि की कैसे सिद्धि हो सकती है? ५. तेसिं आराधणणायगाण ण करिज्ज जो णरो भत्तिं।
धत्तिं पि संजमंतो सालिं सो ऊसरे ववदि।। (भग० आ० ७४६)
जो मनुष्य संयम में दृढ़ होते हुए भी सम्यग्दर्शनादि चार आराधनाओं के नायक पंच-परमेष्ठी की भक्ति नहीं करता वह ऊसर जमीन में चावल के बीज बोता है। ६. विधिणा कदस्स सस्सस्स जहा णिप्पादयं हवदि वासं। तह अरहादिगभत्ती णाणचरणदंसणतवाणं ।।
(भग० आ० ७५१) विधिपूर्वक बोये हुए बीज की जैसे वर्षा से फल रूप में उत्पत्ति होती है, वैसे ही अरहंत इत्यादि की भक्ति से ज्ञान, चारित्र, दर्शन और तपरूपी फल की उत्पत्ति होती है।