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________________ १२. वीर्य १३. जहा कुम्मे सअंगाई सए देहे समाहरे । एवं पावेहिं अप्पाणं अज्झप्पेण समाहरे ।। (सू १, ८ : १६) जैसे कछुवा अपने अंगों को अपनी देह में समाहित कर लेता है वैसे ही मेधावी पुरुष आध्यात्मिक भावना द्वारा अपनी आत्मा को पापों से संवृत्त कर ले। १४. साहरे हत्थपाए य मणं सव्विंदियाणि य । पावगं च परीणामं भासादोसं च पावगं । । ( सू १, ८ : १७) विवेकी पुरुष अपने हाथ, पाँव, मन और सर्व इंद्रियों को नियन्त्रण में रखे । पाप पूर्ण आत्म-परिणाम और भाषा के दोषों को छोड़े । १५. पाणे य णाइवाएज्जा अदिण्णं पि य णातिए । सातियं ण मुसं बूया एस धम्मे वुसीमओ ।। (सू १, ८ : २०) प्रियप्राण प्राणियों का हनन न करे, बिना दी हुई कोई भी चीज न ले, कपटपूर्ण झूठ न बोले । आत्म- जयी वीर पुरुष का यही धर्म है । १६. अतिक्कमंति वायाए मणसा वि ण पत्थए । सव्वओ संवुडे दंते आयाणं सुसमाहरे ।। ८७ . ( सू १, ८ : २१) सच्चा वीर मन, वचन और काया से किसी प्राणी को पीड़ा पहुँचाना न चाहे । बाहर और भीतर सब ओर से संवृत और दान्त पुरुष मोक्ष देनेवाली ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तपरूपी वीरता को अच्छी तरह ग्रहण करे । १७. कडं च कज्जमाणं च आगमेस्सं च पावगं । सव्वं तं णाणुजाणंति आयगुत्ता जिइंदिया || (सू १, ८ : २२) आत्मगुप्त जितेन्द्रिय पुरुष किसी के द्वारा किये गए तथा किये जाते हुए और भविष्य में किये जाने वाले पापों का अनुमोदन नहीं करते । सव्वसो । १८. झाणजोगं समाहट्टु कायं वोसेज्ज तितिक्खं परमं णच्चा आमोक्खाए परिव्वज्जासि ।। (सू १, ८ : २७) योग में प्रवृत्त पंडित पुरुष ध्यानयोग को ग्रहण कर, सर्व प्रकार से अकुशल शरीर का व्युत्सर्ग करे - बुरे व्यापारों से हटावे । तितिक्षा को परम प्रधान समझकर शरीरपात पर्यन्त संयम का पालन करता हुआ रहे । १६. अप्पपिंडासि पाणासि अप्पं भासेज्ज सुव्वए । खंतेऽभिणिव्वुडे दंते वीतगेही सया जाए ।। ( सू १,८ : २६)
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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