SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११. विजय-पथ ८३ २६. रुद्धेसु कसायेसु अ मूलादो होति आसवा रुद्धा। दुभत्तम्हि रुिद्धे वणम्मि णावा जह ण एदि ।। (मू० ७३६) कषायों को अवरुद्ध करने से मूल से ही सभी आस्रव अवरुद्ध हो जाते हैं। जैसे छिद्र को रोक देने से नाव पानी में नहीं डूब सकती, वैसे ही कषाय को रोक देने पर दुर्गति नहीं होती। ७. इंद्रिय-कषाय-विजय १. णस्सदि सगंपि बहुगंपि णाणमिंदियकसायसम्मिस्सं । विससम्मिसिदुह्र णस्सदि जध सक्कराकढिदं ।। (द० ८ : ३६) इन्द्रिय-विषय और कषाय से मिश्रित बहुत सारा ज्ञान उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार चीनी सहित उबाला हुआ विषमिश्रित दूध । २. इंदियकसायदुइंतस्सा पाडेंति दोसविसमेसु । दुःखावहेसु पुरिसे पसढिलणिव्वेदेखलिया हु।। (भग० आ० १३६५) इन्द्रिय और कषायरूपी दुर्दान्त घोडे, जिनकी वैराग्यरूपी लगाम ढीली कर दी गइ है, मनुष्यों को निश्चय ही दुःख देनेवाले दोषरूप विषम स्थानों में गिरा देते हैं। ३. इंदियकसायदुइंतस्सा णिव्वेदखलिणिदा संता। ज्झाणकसाए भीदा ण दोसविसमेसु पाडेंति।। (भग० आ० १३६६) इन्द्रिय और कषायरूपी दुर्दान्त घोडे जब वैराग्यरूपी लगाम से वश में किये जाकर ध्यानरूपी कोड़े से डराये जाते हैं, तब वे दोषरूप विषम स्थानों में मनुष्य को नहीं गिराते। ४. इंदियकसायपण्णगदट्ठा बहुवेदणुद्दिदा पुरिसा। पभट्टझाणसुक्खा संजमजीवं पविजहंति।। (भग० आ० १३६७) इन्द्रिय और कषायरूपी साँपों से इंसे जाकर जो तीव्र वेदना से पीड़ित होते हुए ध्यानरूपी आनन्द से भ्रष्ट हो गये हैं, ऐसे मनुष्य अपने संयमरूपी जीव का परित्याग कर देते है। ५. इंदियकसायचोरा सुभावणासंकलाहिं वज्झंति। ता ते ण विकुव्रति चोरा जह संकलाबद्धा ।। (भग० आ० १४०६) यदि इन्द्रिय और कषायरूपी चोर शुभ भावनारूपी साँकल से बाँध दिए जाएँ, तो वे साँकलों से बँधे हुए चोरों की तरह विकार उत्पन्न नहीं कर सकते।
SR No.006166
Book TitleMahavir Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Rampuriya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy