________________
जैन संस्कृत महाकाव्य
काव्यमण्डन के तेरह में से आठ सर्गों में नाना छंदों का प्रयोग किया गया है। तीसरे आठवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें तथा तेरहवें सर्ग में क्रमशः ग्यारह, पन्द्रह, दस, ग्यारह, ग्यारह तथा बारह छन्द प्रयुक्त हुए हैं । पांचवें तथा छठे सर्ग दोनों में नौ-नौ छन्दों का उपयोग किया गया है । ततीय सर्ग में जिन ग्यारह छन्दों की योजना हुई है, उनके नाम इस प्रकार हैं-वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित, स्रग्धरा, इन्द्रवज्रा, शालिनी, द्रुतविलम्बित, शिखरिणी, अनुष्टुप्, उपजाति, हरिणी तथा वंशस्थ । इन छन्दों की अपेक्षा पांचवें सर्ग में मालिनी, छठे में उपेन्द्रवज्रा, आठवें में भुजंगप्रयात, रथोद्धता, मन्दाक्रान्ता, मंजुभाषिणी, तथा स्वागता, दसवें में पृथ्वी तथा पुष्पिताग्रा, बारहवें में स्रग्विणी, और तेरहवें में एक अज्ञात विषम छन्द (१-त त ज ज, २-र भ र, ३-त त ज ग ग, ४-ज त ज ग ग) के अतिरिक्त प्रहषिणी नये छंद हैं । ग्यारहवें सर्ग में कोई नया छन्द नहीं है । शेष पांच सर्गों में से प्रथम सर्ग की रचना में मुख्यत: उपजाति का आश्रय लिया गया है । प्रथम दो तथा अन्तिम पद्य कमशः स्रग्धरा, मालिनी तथा शार्दूलविक्रीडित में हैं। द्वितीय सर्ग में द्रुतविलम्बित का प्राधान्य है। सर्गान्त के पद्यों में शार्दूलविक्रीडित का प्रयोग किया गया है। चतुर्थ सर्ग में उपजाति, अनुष्टुप् स्रग्धरा, वसन्ततिलका तथा द्रुतविलम्बित, ये पांच छन्द प्रयुक्त हुए हैं । सप्तम सर्ग में वसन्तलिका को अपनाया गया है। सर्ग के अन्त में शिखरिणी, शार्दूलविक्रीडित तथा प्रहर्षिणी को स्थान मिला है। नवम सर्ग मुख्यतः रथोद्धता में रचित है । सर्गान्त के तीन पद्य अनुष्टुप् तथा शार्दूलविक्रीडित में हैं । सब मिला कर काव्यमण्डन में उक्त अज्ञात विषम छन्द के अतिरिक्त बाईस छन्द प्रयुक्त हुए हैं । समाज-चित्रण
काव्यमण्डन के सीमित परिवेश में युगजीवन का व्यापक चित्रण तो सम्भव नहीं था किन्तु उसमें कुछ तत्कालीन मान्यताओं तथा विश्वासों की प्रतिच्छाया दिखाई देती है । भारत में शुभाशुभ मुहूर्त के विचार की परम्परा अति प्राचीन है। आजकल की भांति मण्डन के समकालीन समाज में भी प्रत्येक कार्य मूहूर्त की अनुकूलता-प्रतिकूलता का विचार करके किया जाता था। इसके लिये समाज को ज्योतिर्विदों का मार्गदर्शन प्राप्त था । द्रुपदराज ने अपनी पुत्री के स्वयम्वर का आयोजन, ज्योतिषियों द्वारा निश्चित किये गये मूहूर्त में ही किया था।
शकुनों की फलवत्ता पर विश्वास का इतिहास भी बहुत पुराना है। मण्डनः कालीन समाज में नाना प्रकार के शकुन प्रचलित थे तथा उनके फलीभूत होने में लोगों की दृढ आस्था थी। छींक तत्काल मृत्यु की सूचक मानी जाती थी। कुलदेवी ३७. वही, १०.४७. ३८. क्षुतमथक्षणमृत्युदायि । वही, ७.२८