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काव्यमण्डन : मण्डन
निरूपण हुआ है । शृंगारमण्डन १०८ शृंगारिक पद्यों का संग्रह है । संगीतमण्डन तथा उपसर्गमण्डन मन्त्री मण्डन की दो अन्य कृतियां हैं, जो अभी तक अप्रकाशित हैं । उसके कविकल्पद्रुम का उल्लेख 'कैटेलोगस कैटेलोगरम' में हुआ है किन्तु यह उपलब्ध नहीं है।
___जिस हस्त प्रति के आधार पर काव्यमण्डन के वर्तमान संस्करण का प्रकाशन हुआ है, वह सम्वत् १५०४ (१४४७-४८ ई०) में लिखी गयी थी । कादम्बरीमण्डन; चम्पूमण्डन, अलंकारमण्डन तथा श्रृंगारमण्डन की प्रतियों का लिपिकाल भी यही है। काव्यमण्डन के लेखक ने शृंगारमण्डन में अपने लिये 'सारस्वतकाव्यमण्डनकविः उपाधि का प्रयोग किया है । इससे प्रतीत होता है कि मण्डन ने सारस्वतमण्डन ग्रन्थ की भी रचना की थी। सारस्वतमण्डन की दो प्रतियां भण्डारकर प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान में सुरक्षित हैं, जिनमें से एक सम्वत् १६३२ (१५७६ ई.) में लिखी गयी थी । उक्त पाण्डुलिपि के आदि तथा अन्त से स्पष्ट है कि सारस्वतमण्डन का लेखक तथा काव्यकार मण्डन दोनों एक ही व्यक्ति हैं। इस प्रकार मण्डन की छह कृतियों की पाण्डुलिपियों का प्रतिलिपिकाल ज्ञात है । काव्यमण्डन तथा पूर्वोक्त चार प्रकाशित ग्रन्थों की प्रतिलिपियां एक ही वर्ष, सन् १४४८, में की गयी थीं। स्पष्टतः काव्यमण्डन की रचना सन् १४४८ से पूर्व हो चुकी थी। स्वयं कवि के कथनानुसार काव्यमण्डन की रचना उस समय हुई थी जब मण्डपदुर्ग पर यवननरेश आलमसाहि का शासन था। यह यवन शासक अतीव प्रतापी तथा शत्रुओं के लिये साक्षात् आतंक
था।
अस्त्येतन्मण्डपाख्यं प्रथितमरिचमूदुर्ग्रहं दुर्गमुच्च
यस्मिन्नालमसाहिनिवसति बलवान्दुःसहः पार्थिवानाम् । यच्छौर्यरमन्दः प्रबलधरणिभत्सैन्यवन्याभिपाती
शत्रुस्त्रीवाष्पवृष्ट्याप्यधिकतरमहो दीप्यते सिच्यमानः ॥' श्री परशुराम कृष्ण गोडे के विचार में मालव के यवन शासकों के कालानुक्रम को देखते हुए अलपखान अपरनाम होशंगगोरी (१४०५-१४३२ ई.) ही एकमात्र ऐसा शासक है जिसे मण्डन का आश्रयदाता आलमसाहि माना जा सकता है । सन् ६. सम्वत् १५०४ वर्षे शाके १३६६ प्रवर्तमाने........माद्रशुदि पंचम्यां तिथौ
बुधदिने पुस्तकमलेखि । काव्यमण्डन के अन्त में लिपिकार की टिप्पणी। ७. द्रष्टव्य-इन प्रन्थों की लिपिकार को अन्त्य टिप्पणियां । ८. यः सारस्वतकाव्यमण्डनकविर्दारिद्र यभूभत्पविः । श्रृंगारमण्डन, १.७. ६. काव्यमण्डन, १३-५३. शृंगारमण्डन की रचना भी आलमसाहि
(अलपखान) के शासनकाल में हुई थी। द्रष्टव्य-पद्य १०३-१०४ । .. १०. जैन एण्टीक्वेरी, ११.२, पृ. २५-२६, पादटिप्पणी १ ।