SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८ जैन संस्कृत महाकाव्य ऋषभदेव जयशेखर ने, प्रकारान्तर से, काव्यनायक में जो गुण अनिवार्य माने हैं, उनके अनुसार उसका दाता, कुलीन, मधुरभाषी, सौन्दर्य सम्पन्न, वैभवशाली, तेजस्वी तथा योगी एवं मोक्षकामी होना अनिवार्य है। काव्यनायक का यह स्वरूप काव्यशास्त्र के विधान से अधिक भिन्न नहीं है। अन्तिम दो गुण (योगी तथा मोक्षकामी) निवृत्तिवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। युग्मिपति नाभि के पुत्र ऋषभदेव जैनकुमार सम्भव के धीरोदात्त नायक हैं। यद्यपि उनका चरित पौराणिक परिवेश में अंकित किया गया है, किन्तु वह जयशेखर द्वारा विहित गुणों को सर्वांश में बिम्बित करता है। पौराणिक नायक की भांति वे विभूतिमान्, पराक्रमी तथा सौन्दर्य-सम्पन्न हैं। गर्भावस्था में ही ऋषभ त्रिज्ञान से सम्पन्न तथा कैवल्य के अभिलाषी थे। उनके जन्म से जगतीतल के क्लेश इस प्रकार विलीन हो गये जैसे सूर्योदय से चकवों का शोक तत्काल समाप्त हो जाता है। उनकी शैशवकालीन निवृत्ति से काम को अपने अस्त्रों की अमोघता पर सन्देह हो गया (जै० कु० सम्भव, १. १८-२१, ३६) । यौवन में उनके सौन्दर्य तथा शौर्य में विलक्षण निखार आ गया किन्तु उस मादक अवस्था में भी उन्होंने मन को ऐसे वश में कर लिया जैसे कुशल अश्वारोही उच्छृखल घोड़े को नियन्त्रित करता है । अपनी रूपराशि से काम को जीतकर वे स्वयं काम प्रतीत होते थे। उनकी रूप-सम्पदा का यथार्थ निरूपण करना बृहस्पति के लिये भी सम्भव नहीं था। काव्यनायक के स्वरूप के अनुसार ऋषभदेव मधुरभाषी थे। उनकी वाणी के माधुर्य के समक्ष का सुधा दासी', अमृत नीरस था । प्रतीत होता है, विधाता ने चन्द्रमा का समूचा सार उनकी वाणी में समाहित कर दिया था (१०. ६)। धीरोदात्त नायक होने के नाते वे प्रतिभावान् तथा दानी थे। उनके अविराम औदार्य के कारण कल्पवृक्ष की दानवृत्ति अर्थहीन हो गयी। ऋषभ अनुपम यशस्वी थे। उनके यश का पान करके देवगण अमृत के माधुर्य को भूल जाते थे (१. ६९-७०, २.६)। ऋषभदेव के चरित की मुख्य विशेषता यह है कि अनुपम वैभव, अतुल रूप तथा मादक यौवन से सम्पन्न होने पर भी वे विषयों से विमुख थे । लोकस्थिति के ४०. दाता कुलीनः सुवचा रुचाढ्यः रत्नं पुमानेव न चाश्मभेदः । वही, ११.३४ तथेष योगानुभवेन पूर्वभवे स्वहस्तेऽकृतमोक्षतत्त्वम् । वही, ११.४८ ४१. त्यागी कृती कुलीन: सुश्रीको रूपयौवनोत्साही । दक्षोऽनुर तलोकस्तेजोवैदग्ध्यशीलवान् नेता ॥ साहित्यदर्पण, ३.३० ४२. रूपसिद्धिमपि वर्णयितुं ते लक्षणाकर न वाक्पतिरीशः- कु.सम्भव, ५.५६
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy