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________________ प्रद्युम्नचरित : रत्नचन्द्रगणि ४८३ कर सके । विद्याधरी कनकमाला के रूप के पीछे घृणित कुरूपता छिपी है । भाषा प्रद्युम्नचरित्त की रचना विद्वद्वर्ग के बौद्धिक रंजन के लिए नहीं अपितु जनसाधारण को कथात्मक पद्धति से धर्मबोध देने के लिए है । इसमें भाषा का महत्त्व माध्यम से अधिक नहीं है। फलतः प्रद्युम्नचरित में भाषा को परिष्कृत अथवा प्रौढ बनाने या साहित्यिक कलाबाज़ियां दिखाने की सप्रयत्नता नहीं है । कवि के उद्देश्य के अनुरूप वह सरल तथा सुगम है। काव्य में आद्यन्त एकरूप भाषा प्रयुक्त की गयी है । अनुष्टुप् भाषायी सरलता का वाहक है । प्रद्युम्न चरित्र के विस्तृत कलेवर में स्थितियों के वैविध्य की कमी नहीं, परन्तु उसकी भाषा में तदनुरूप रूप परिवर्तित करने की क्षमता नहीं है । युद्ध तथा हास्य, द्वारिकादाह तथा रुक्मिणीहरण, धर्मोपदेश तथा षड्यन्त्र आदि का वर्णन एक जैसी भाषा में किया गया है ।। इन तथा अन्य प्रसंगों की भाषा में मात्रा का अन्तर भले हो, स्वरूपगत भिन्नता नहीं अपनी कृति को सरल बनाने के लिए रत्नचन्द्र ने वाग्व्यहार तथा भाषा की शुद्धता को भी महत्त्व नहीं दिया है। उसका वाक्यविन्यास कहीं-कहीं मानक नहीं है । उस पर जनपदीय भाषा का स्पष्ट प्रभाव है। अद्याप्युपायो द्वौ शेषौ तिष्ठतोऽस्य निपातने (७.२६१)-इसे मारने के अभी दो उपाय शेष रहते हैं; मानसं पृच्छ स्वकम् (८.२४२)-अपने मन को पूछ; चलत्पन्थानमुज्झित्वा (१२.६१)-चलते रास्ते को छोड़कर; श्रवसोर्दत्त्वांगुली द्वे साऽवदत् (वह कानों में दो अंगुलियाँ डालकर बोली); तां समर्पय मार्गेण ऋजुना (१३.७४) उसे सीधे रास्ते से सौंप दे आदि संस्कृत की प्रकृति के अनुकूल नहीं हैं। यान्तीमिव गन्धरेणुम् (५.१६७), किमारूढोऽसि....""सहकारतरौ (७.१६५), प्रौढऋद्धि (७.४००) प्रेमपात्रिका (८.१६१) अतिसुन्दराम् (६.१६८), प्राज्ञा अपास्तभयवेपथुः (१०.२६५) तामुपायत (११.५८), युक्तं तद्गमनं कर्त (१६.११३), सिंहा लक्षश एव हि । विकृतास्तं गिरि (१७.७९) आदि प्रयोग व्याकरण की दृष्टि से चिन्त्य हैं। सुबोधता के लिए ही प्रद्युम्नचरित में देशी शब्दों का प्रयोग किया गया है। उनमें से कुछ बहुत विचित्र हैं- छोटयामास (४.१५६), हक्कयन् (७.२६८); हारयामास (८.८३), लड्डुकाः (८.१८६) । प्रद्युम्नचरितकार ने अपने भावों के समर्थन में संस्कृत तथा प्राकृत में पररचित पद्य उद्धत करने में भी संकोच नहीं किया है। काव्य में ऐसे तेरह पद्य समाविष्ट हैं । 'सहसा विदधीत न क्रियाम्' तथा 'कुमुदवनमपनि श्रीमदम्भोजखण्डम्', भारवि तथा माघ के ये प्रसिद्ध पद सातवें (४३०) तथा दसवें सर्ग (२५८) में यथावत् विद्यमान हैं। भाषा को सुबोध बनाने के इस प्रयत्न के विपरीत प्रद्य म्नचरित में कुछ अतीव अप्रचलित संस्कृत शब्द प्रयुक्त किए गए हैं ।
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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