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________________ प्रद्युम्नचरित : रत्नचन्द्रगणि ४८१ मानों मृत्यु को आहूत करने के लिये, द्वारिका छोड़ कर चले जाते हैं । वन में उनका आचरण और भी आश्चर्यजनक है। वे इतने पराश्रित हो जाते हैं जैसे स्वयं असमर्थ, असहाय तथा अशक्त हों।२६ कर्मयोग में आस्था के कारण प्रव्रज्या ग्रहण न करने के फलस्वरूप उनका नरक में पतन होता है । कृष्ण महान् हैं किन्तु उनका अन्त अतीव कारुणिक है। बलदेव बलदेव कृष्ण के अग्रज हैं। हल और मुसल उनके ख्यात शस्त्र हैं । उनके मदिराप्रेम की ध्वनि भी यत्र-तत्र सुनाई पड़ती है। काव्य में उनके चरित्र की दो मुख्य विशेषताएँ अंकित हुई हैं-वीरता तथा भ्रातृप्रेम । वे कृष्ण के अग्रज ही नहीं, सच्चे पथ-प्रदर्शक तथा हितैषी हैं। वे सुख-दुःख में, छाया की भाँति, सदैव उनका साथ देते हैं । उनका साहचर्य अविच्छिन्न है । वस्तुतः वे कृष्ण की शक्ति के स्रोत हैं । उनके शौर्य और सहायता से ही कृष्ण, शिशुपाल तथा जरासन्ध जैसे दुर्घर्ष शत्रुओं को धराशायी करने में सफल होते हैं (तव साहाय्यतस्तीर्णो जरासन्धरणोऽर्णवः उनके व्यक्तित्व का सबसे मधुर पक्ष उनका भ्रातृ-प्रेम है । अपने अनुज के प्रति उनके हृदय में अथाह स्नेह है। अन्तिम समय में वे भी द्वारिका छोड़कर कृष्ण के साथ चल पड़ते हैं। वन में वे अपने प्रिय भाई की हर सुविधा का ध्यान रखते हैं और अपने प्राणों को संकट में डालकर उनके लिये अन्न, जल आदि जुटाते हैं। जरासुत का बाण लगने से जब कृष्ण के प्राण-पखेरू उड़ जाते हैं, वे, अबोध बालक की तरह, उनके शव को कन्धे पर उठाकर छह मास तक घूमते रहते हैं । वे तो यह मानने को भी तैयार नहीं कि उनका अनुज मर चुका है (१७.३२) । स्वयं कृष्ण को उनके प्रेम पर पूरा विश्वास है। मरने से पूर्व जरासुत को कहे गये ये शब्द उनके प्रति बददेव के अगाध स्नेह के द्योतक हैं। . बलो ज्ञाता यदि वधं तव हस्तान्मदीयकम् । हन्यादेव तदा त्वां च स मयि प्रेमवान् यतः ॥ १६.१६८ वे नरक में भी कृष्ण की यातनाओं का प्रतिवाद करने का प्रयत्न करते हैं। उसमें असफल होने पर स्वयं नरक में रहने का प्रस्ताव करते हैं (१७.१९२) नारद देवर्षि नारद काव्य के अलौकिक पात्र हैं। वे लोक-लोकान्तरों में विचरण करते हैं और विभिन्न भुवनों तथा लोगों के बीच राजसी दूत अथवा सम्पर्क अधिकारी का काम करते हैं । वे कलह, क्रोध तथा ईर्ष्या के साक्षात् अवतार हैं । सांप की तरह उनका क्रोध एकदम फुफकार उठता है (साक्षादहिरिव क्रुद्धो नारदः कलिकौतुकी २६. भ्रातः क्षुधातुरोऽभूवं-१६.१२१. बन्धोऽहं तषितोऽभवं-१६.१३४
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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